
पाखी के मार्च अंक में विविधतापूर्ण रचनाओं का प्रकाशन किया गया है। अंक में ख्यात फिल्मकार, लेखक व गीताकार गुलजार की कहानी हिल्सा, बहन जी चुप थी(संतोष सिंह धीर), उसका रोना(बद्री सिंह भाटिया), थिंक पाजिटिव(आद्या प्रसाद पाण्डे), लौट आइए चंदर भाई(राकेश दुबे) एवं एक ताजा खबर(स्वाति तिवारी) की कहानियां प्रकाशित की गई है। इन सभी कहानियों में समाज के मसले, लोकहित, दामपत्य जीवन एवं सूखती संवेदनाओं को प्रमुखता से उठाया गया है। सुशील सिद्घार्थ का उपन्यास अंश (मैं इनकार करता हूं) इसे पॄने के लिए प्रेरित करता हैं। ख्यात कवि लीलाधर मंडलोई, ओम प्रकाश वाल्मिकी, हरि मृदुल, मिथलेश राय एवं श्रद्घा की कविताएं वर्तमान सामाजिक स्वरूप की विद्रूपताओं को सामने लाती हैं। राजीव रंजन गिरि, विनोद अनुपम, एवं प्रतिभा कुशवाहा के स्तंभ की सामग्री में नवीनता है। पत्रिका पिछले कुछ समय से लगातार समसामयिक राजनीतिक मुद्दों को उठा रही है। इससे आम पाठक के लिए यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि पाखी साहित्यिक पत्रिका है अथवा सामाजिक विषयों की राजनीतिक विचारधारा युक्त पत्रिका? पत्रिका के एक पाठक (गौरीशंकर वैश्य, सीतापुर उ.प्र.) ने इसे हंस बनने की उतावली’ कहकर और भी स्पष्ट किया है। (मेरे द्वारा लिखी गई यह समीक्षा जन संदेश, कानपुर में प्रकाशित हो चुकी है।)
''पाखी''के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देने का शुक्रिया!पढ़ना चाहते हैं इस पत्रिका को!सामग्री अच्छी लगी ....
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