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प्रतिष्ठित पत्रिका पाखी का समीक्षित अंक स्त्री लेखन अंक है। स्त्री अथवा महिला लेखन पर अनेक पाित्रकाओं ने भारीभरकम अंक निकाले हैं। उन अंकों सहित इस अंक में भी ऐसा कुछ विशेष नहीं है जिसकी चर्चा की जाए। ऐसा लगता है कि उपरोक्त अंक अनेक पत्रिकाओं के स्त्री लेखन विशेषांकों की अगली कड़ी मात्र है। हां, यह अवश्य है कि अंक की कहानियां नयापन लिए हुए है। इन कहानियों में बदलते समय के सरोकार तथा प्रतिमानों पर विशेष ध्यान दिया गया है। यद्यपि कहानियों के कथानक तो पुराने ही हैं लेकिन शिल्प की दृष्टि से इनमें नवीनता दिखाई पड़ती है। पत्रिका में लब्धप्रतिठित से लेकर उन नवीन कथा लेखिकाओं को भी शामिल किया गया है जिनकी अभी तक मात्र दो चार कहानियां ही प्रकाशित हुए है। उमा की कहानी .....और हवा खामोश हो गई राजस्थान की राजधानी जयपुर से होती हुई पाठक के मतिष्क में अंदर तक समाती हुई उसे झकझोरती है। कहानी खुशकिस्मत(मृदुला गर्ग), गुलाबी ओढ़नी(स्वाति तिवारी) ,एक बदमजा लड़की(कृष्णा अग्निहोत्री), करोड़पति(कमल कुमार), भेड़िए(लता शर्मा), एक सांवली सी परछाई(मनीषा कुलश्रेष्ठ), देह के पार(जयश्री राय) तथा विकलांक श्रद्धा(ज्योति कुमारी) कहानियों में बहुत कुछ है जो साहित्य के नवसिखियों को कथा की सरसता से अवगत कराएगा। सूरज पालीवाल तथा राकेश बिहारी के आलेखों में साहित्यिकता की अपेक्षा वर्तमान विज्ञापन युग को नए अंदान में परोसने की आकांक्षा ही अधिक दिखाई पड़ती है। अनंत विजय का मूल्यांकन, कविता का उपन्यास अंश तथा गरिमा श्रीवास्तव का आलेख दांसता के स्त्री स्वर में भी स्त्री को स्त्री ही बने रहने का भाव ही उजागर हुआ है। भारत भारद्वाज ने अपने स्तंभ में वर्ष 2011 की साहित्यिक गतिविधियों को बहुत ही सुंदर ढंग से पाठकों के सामने रखा है। लेकिन इसमें यदि इंटरनेट पर पिछले वर्ष होने वाली साहित्यिक गतिविधियों को भी शामिल किया जाता तो इसकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती।
पत्रिका का संपादकीय बोझिल तथा उबाऊ है। लगता है इसमें संपादक अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना चाहता है। अनावश्यक विश्लेषण पढ़कर लगता है कि हम पिछली शताब्दी के सातवें आठवें दशक की किसी पत्रिका का संपादकीय पढ़ रहे है। इस संपादकीय का केवल अंतिम पैरा ही दिया जाता तो वह पर्याप्त था। फिर भी इतना अवश्य है कि पाठकों को स्त्री लेखन पर एकाग्र एक और अंक से इस विषय पर फिर से सोचने विचारने का अवसर मिलेगा। पत्रिका की अन्य रचनाएं साधारण है।
पत्रिका का संपादकीय बोझिल तथा उबाऊ है। लगता है इसमें संपादक अपने ज्ञान का प्रदर्शन करना चाहता है। अनावश्यक विश्लेषण पढ़कर लगता है कि हम पिछली शताब्दी के सातवें आठवें दशक की किसी पत्रिका का संपादकीय पढ़ रहे है। इस संपादकीय का केवल अंतिम पैरा ही दिया जाता तो वह पर्याप्त था। फिर भी इतना अवश्य है कि पाठकों को स्त्री लेखन पर एकाग्र एक और अंक से इस विषय पर फिर से सोचने विचारने का अवसर मिलेगा। पत्रिका की अन्य रचनाएं साधारण है।
बन्धु! यही तो हमारे समाज की विडंबना है कि हर वो सही बात जो सच्चाई से सच की गहराई तक पहुचकर पाठक को कुछ सन्देश दे वो आप जैसे कई और तथाकथित समीक्षकों को बोझिल और उबाऊ ही लगता है,,,,
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