पत्रिका: हिंदी चेतना, अंक: अप्रैल-जून 2011, स्वरूप: त्रैमासिक, संपादक: श्याम त्रिपाठी, डाॅ. सुधा ओम ढीगरा, पृष्ठ: 96, मूल्य: प्रकाशित नहीं, ई मेल: ,वेबसाईट: फोन/मोबाईल: ;905द्ध 475.7165ए सम्पर्क: 6, Larksmere Court, Markham, L3R, 3R1, Ontario, Canada
हिंदी चेतना कनाड़ा से निरंतर प्रकाशित हो रही एक अनूठी साहित्यिक पत्रिका है। पत्रिका का प्रत्येक अंक विशेषांक के समान होता है। इसकी साज सज्जा तथा कलेवर विशेष रूप से आकर्षित करता है। इस अंक में प्रायः सभी रचनाएं भारत से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्रिकाओं से कम नहीं है। अंक में तीन कहानियों को स्थान दिया गया है। वो एक पल(नीना पाल), छोटा दर्द बड़ा दर्द(शैलजा सक्सेना) तथा उत्तरायण(सुदर्शन प्रियदर्शनी) की बुनावट तथा शिल्प पाठकों को अंत तक बांधे रखते हैं। देवेन्द्र पाल गुप्ता, सीताराम गुप्ता तथा प्रीत अरोरा के लेख साहित्येत्तर विषयों पर गहन विमर्श है। जिनमें वर्तमान वैश्विक ढांचे के नीचे दब कर असहाया हो रही मानवता को पुर्नस्थापित करने की मंशा दिखाई देती है। निर्मल गुप्त, अनिल श्रीवास्तव, पंकज त्रिवेदी, मधु वाष्णैय, दीपक मशाल, भारतेन्दु श्रीवास्तव, अलका सैनी तथा जयप्रकाश मानस की कविताओं की अन्तर्वस्तु मानव जगत के लिए जीवन दायी है। यू.के. के कवि दीपक मशाल ने दो बातें कविता में बारीक रिश्तों को जोड़ने के लिए सांसों की आवाजाही को आवश्यक मानते हैं। वहीं दूसरी ओर पाण्डुलिपि तथा सृजनगाथा के संपादक जयप्रकाश मानस ‘मां की रसोई’ से आनंदित होते हैं। अनिल प्रभाकुमार ने ‘पिरामिड़ की ममी की विवेचना आज के संदर्भ में अलग ढंग से की है। रचना श्रीवास्तव, आकांक्षा यादव तथा महेश द्विवेदी की लघुकथाएं भी घर परिवार तथा राजनीति रिश्तों की महीन बुनावट से विश्व बिरादरी की ओर झांकने का प्रयत्न करती दिखाई पड़ती हैं। तीनों पुस्तकों की समीक्षाओं का विशिष्ठ अंदाज प्रभावित करता है। विशेष रूप से कौन सी जमीन....(कथाकार-सुधा ओम ढीगरा) कथासंग्रह की समीक्षा टेम्स से गंगा तक अनवरत जल प्रवाह का प्रभावशाली विश्लेषण है। प्रमुख संपादक श्री श्याम त्रिपाठी के अनुसार, ‘हमारा सुख चैन, दुख दर्द मात्रभूमि के साथ साक्षा है, लेकिन खेद की बात है कि हमारा साहित्य एक नहीं जबकि भाषा एक है। हमें इन दूरियों को मिटाना होगा और साहित्य को पान की तरह स्वादिष्ट बनाना होगा।’ उनकी भाषा व साहित्य के प्रति यह चिंता वास्तव में प्रत्येक हिंदी भाषा व साहित्यप्रेेमी की चिंता होना चाहिए, अन्यथा हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में उसका उचित स्थान दिलाना संभव नहीं हो सकेगा। (समीक्षा जनसंदेष टाईम्स में दिनांक 05.06.2011 को प्रकाषित हो चुकी हे।)

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