पत्रिका: हिंदी चेतना, अंक: जुलाई2010, स्वरूप: त्रैमासिक, प्रमुख संपादक: श्याम त्रिपाठी, संपादक: सुधा ओम ढीगरा, पृष्ठ: 78, ई मेल: hindichetna@yahoo.ca , वेबसाईट/ब्लाॅग: http://hindi-chetna.blogspot.com/ , फोन/मो.ः (905)475-7165, सम्पर्क: 6 Larksmere Court, Markham, Ontario, L3R 3R1
पत्रिका का यह अंक नई साज सज्जा व कलेवर के साथ पाठकों के सामने आया है। अंक में प्रकाशित कहानियां विश्व समुदाय के सामने भारतीय समाज की पीड़ा को अभिव्यक्ति देती है। प्रमुख कहानियों में टेलीफोन लाईन(तेजेन्द्र शर्मा), पगड़ी(सुमन घई) एवं राम जाने(पंकज सुबीर) शामिल है। ख्यात लेखिका इंदिरा (धीर) वडेरा का प्रज्ञा परिशोधन पूर्ववर्ती अंकों की तरह आम आदमी की जिज्ञासा को शांत करने में पूर्णतः सफल रहा है। डाॅ. अंजना संधीर का स्तंभ ‘एक दरवाजा बंद हुआ तो दूसरा खुला’ एवं आत्माराम शर्मा का हिंदी ब्लाग पाठकों को नवीनतम जानकारियां उपलब्ध कराता है। सुधा गुप्ता का संस्मरण रिश्ता एवं शशि पाधा का दृश्य पटकथा पात्र आम पाठक के जेहन मंे कथात्मक रूप से अपनी अमिट छाप छोड़ता है। पत्रिका के दोनों व्यंग्य बहुत पहले से उन कदमों की आहट(समीर लाल समीर) एवं महानता को दौर(पे्रम जनमेजय) उत्कृष्ट रचनाएं हैं। इनमें व्यंग्य के माध्यम से आम भारतीय समाज की विसंगतियुक्त मनोवृत्तियों को उजागर किया गया है। जितेन्द्र सहाय का ललित निबंध दर्द क्लब समाज के दर्द एवं उसकी कसक को सरलता व सहजता के साथ प्रस्तुत कर सका है। जिंदा मुहावरे(डाॅ. एम. फ़ीरोजा खान) व दीपक मशाल की लघुकथाएं भी बारंबार पढ़ने योग्य हैं। बी. मरियम, इला प्रसाद, दिविक रमेश, गुलाम मुर्तजा, अदिति मजूमदार, वेद प्रकाश बटुक एवं प्रेम मलिक की कविताओं में विविधता होेते हुए भी वे समाज को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए प्रयासरत दिखाई देती हैं। काव्य संग्रह धूप से रूठी चांदनी(कवयित्री-डाॅ. सुधा ओम ढीगरा) की अच्छी व विश्लेषण युक्त समीक्षा डाॅ. पुष्पा दुबे ने की है। पुष्पा दुबे ने इन कविताओं के संबंध में बहुत सटीक बात कही है। काव्य संग्रह पढ़कर यह भलीभांति जाना समझा जा सकता है कि, ‘‘सुधा जी की काव्यनुभूतियां विस्तृत हैं। उनकी संवेदना स्त्री पीड़ा मेें मुखर होकर संबोधित होती है। इसलिए उनकी कविताओं में नारी संवेदना मूल स्वर बनकर उभरा है।’’ पत्रिका के प्रमुख संपादक श्याम त्रिपाठी जी का संपादकीय भारत में अंगे्रजी के दुष्प्रभावों व उसके उत्तरप्रभावों पर अच्छ ी तरह से प्रकाश डाल सका है। उनका कथन, ‘‘वे चीन जाते हैं तो चीनी सीखकर आते हंै, लेकिन भारत आते हैं तो उन्हें हिंदी सीखने की कोई जरूरत नहीं होती’’ स्पष्ट कर देता है कि भारत में हिंदी पूर्ण रूप से स्थापित होने के लिए आज भी संघर्षरत है।
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