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पाखी का समीक्षित अंक वर्तमान समय को पिछली पीढी से जोड़ने के प्रयास में सफल रहा है। इसे अंक में प्रकाशित कहानियों से अच्छी तरह से जाना समझा जा कसता है। कहानियां शोक वंचिता(अशोक गुप्ता), अभिशाप(उर्मिला शिरीष), आठ आने का जहर(रणीराम गढ़वाली) एवं उसकी आजादी(पदमा शर्मा) इसे अपनी पूर्णता के साथ अभिव्यक्ति देती है। कहानी जो दिल को छू गई के अंतर्गत प्रकाशित कहानी कामरेड का कोट(संृजय) आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 90 के दशक में दी। कहानी का कथानक, पात्र तथा परिवेश प्रगतिवादी विचारधारा के प्रति समाज की दिन प्रतिदिन बदल रही सोच को व्यपक रूप से व्यक्त कर सका है। शतदल, आलोक श्रीवास्तव, अच्युतानंद मिश्र, कैलाश दहिया एवं सत्येद्र कुमार झा की कविताएं एवं कुमार विश्वास, ज्ञान प्रकाश विवेक तथा दीपक कुमार की ग़ज़लें प्रभावित करती हैं। विशेष रूप से ज्ञान प्रकाश विवेक अपने समय के साथ ग़ज़लों में जो अभिव्यक्ति देते दिखाई पड़ते हैं वह प्रशंसनीय हैै। विजय शर्मा, राजीव रंजन गिरि, पुण्य प्रसून वाजपेयी तथा विनोद अनुपम के कालम अब जड़वत से लगने लगे हैं। पत्रिका के प्रायः हर अंक में इन स्तंभों की एक सी भाषा व शैली (भले ही विषय अलग अलग हो) निष्प्रभावी लगती है। पत्रिका के संपादक प्रेम भारद्वाज का लेख कंपनी बन चुकी है कश्मीर बिलकुल नए ढंग से कश्मीर पर विश्लेषण है। इस विषय पर गंभीर चर्चा की जाने की आवश्यकता है। इस अंक में प्रतिभा कुशवाहा के स्तंभ की कमी लगी।यह स्तंभ वेब पत्रकारिता पर चल रही गतिविधियों को पिछले अंकों में अच्छे विश्लेषण के साथ प्रस्तुत करता रहा है। पत्रिका के संपादक अपूर्व जोशी जी संपादकीय बहुत अधिक आक्रमक हो गया है। मेरा सुझाव है कि उन्हें साहित्यिक पत्रकारिता के रणक्षेत्र में तलवार तथा ढाल का बुद्धिमत्ता पूर्ण प्रयोग करना चाहिए। केवल तलवारबाजी कभी कभी सामने वाले के सामने घुटने टेकने के लिए मजबूर कर देती है। पाखी के इस एक और अच्छे अंक के लिए बधाई।
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