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पत्रिका का समीक्षित अंक ख्यात लेखक प्रणव कुमार बंद्योपाघ्याय पर एकाग्र है। उन्होंने कविताएं, कहानियां, आलेख आदि समान रूप से लिखे हैं। राकेश भारतीय जी से साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया है कि हां परंपराएं भी आज बाजार का अंग बन रही है। पत्रिका में तत्कालीन समाज व आधुनिक दृष्टिकोण को प्राचीन विचारधारा से जोड़ती हुई कविताएं प्रकाशित की गई हैं। इनमें विश्वरंजन, उपेन्द्र, प्रमोद कुमार, अखिलेश शुक्ल व जहीर कुरेशी की ग़ज़लें शामिल की जा सकती हैं। शैलेय की कहानी भंवर, मैं भी एक औरत हूं(शरद पगारे) व आलेख अवकाश भी अपनी विषयगत नवीनता के कारण अच्छे बन पड़े हैं। पत्रिका में बहुत दिनों बाद नाटक पढ़ने को मिला। राजीव शुक्ल का नाटक तपिश लम्बा होते हुए भी पठनीय है व पाठक को बांधे रखता है। ख्यात रंगकर्मी गिरीश रस्तोगी पर एकाग्र सामग्री, आत्मकथ्य व विलास गुप्ते जी का आलेख रंगकर्मी के संघर्ष से साक्षात्कार करते हैं। पत्रिका की अन्य रचनाएं, समीक्षाएं व समाचार भी उल्लेखनीय हैं व पाठक में और अधिक जानने समझने की जिज्ञासा जगाते हैं।
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