पत्रिका: साक्षात्कार, अंक: दिसम्बर, वर्ष: 2011,स्वरूप: मासिक, संपादक: त्रिभुवन नाथ शुक्ल, आवरण: मुन्नालाल विश्वकर्मा, , पृष्ठ: 120, मूल्य: 25 रू.(वार्षिक 200 रू.), ई मेल: sahityaacademy.bhopal@gmail.com ,वेबसाईट: उपलब्ध नहीं , फोन/मोबाईल: 0755.2554762, सम्पर्क: साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति भवन, वाणगंगा, भोपाल 3 म.प्र.
पत्रिका का समीक्षित अंक अच्छी जानकारीपरक रचनाओं से युक्त है। अंक में ख्यात साहित्कार, लेखक व प्रशासक श्री मनोज श्रीवास्तव से उषा जायसवाल द्वारा लिया गया साक्षात्कार दशावतार की कथा हर मनुष्य के जीवन की कथा है’ प्रकाशित किया गया है। एक प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है कि, ‘‘ मैं विशेषणों, जो आपने प्रशासक, लेखक और कवि के साथ जोड़े हैं, से असहमति जरूर प्रकट करना चाहूंगा। अभी यह सारे विशेषण प्रिमेच्योर हैं। बात सिर्फ प्रशासक और कवि के दो पक्षों की है। वे दोनों पक्ष मुझे एक दूसरे के विरोध या विकल्प में नहीं लगते बल्कि दोनों एक दूसरे को मजबूती देते लगते हैं।’’ उनके विचार लेखक के साथ साथ प्रशासनिक कार्यो के साथ निष्ठा दर्शाते हुए पाठकों से भी यह आग्रह करते लगते हैं कि वह भी अपने जीवन के सभी पक्षों के साथ संतुलन बनाए रखे। उनका आलेख ‘त्रिजटा का स्वप्न’ पहली नजर में सामान्य धार्मिक आलेख लगता है। लेकिन गंभीरता पूर्वक विचार करने पर उसमें समाज के अनेक रंग दिखाई पड़ते हैं।
महेन्द्र राजा, शैलेन्द्र कुमार त्रिपाठी, कुमार रवीन्द्र, नित्यानंद श्रीवास्तव तथा सिद्धेश्वर के आलेख भले ही पूरी तरह से साहित्यिक आलेख न हों पर इन लेखों का मूल स्वर साहित्य से अधिक निकटता रखता है। कुमकुम गुप्ता का गीत तथा भगवानदास जैन की ग़ज़ल अच्छी व नए विचारों का पोषण करती जान पड़ती है।इस अंक की कहानियां निष्प्रभावी रही है। इनमें ऐसा कुछ नहीं है जिसकी चर्चा की जाए। एडगर एलन पो की कहानी का अनुवाद इंदुप्रकाश कानूनगो ने सटीक व रूचिकर अनुवाद किया है, जिसमें रचना का मूल स्वर अपनी विशिष्टता के साथ निखरता चला गया है। पत्रिका की समीक्षाएं ठीक ठाक कही जा सकती है। संपादकीय वह, जो हम भूल रहे हैं अधिक लम्बा होते हुए भी संग्रह योग्य है। अच्छे साक्षात्कार युक्त अंक के लिए पत्रिका की टीम बधाई की पात्र है।
महेन्द्र राजा, शैलेन्द्र कुमार त्रिपाठी, कुमार रवीन्द्र, नित्यानंद श्रीवास्तव तथा सिद्धेश्वर के आलेख भले ही पूरी तरह से साहित्यिक आलेख न हों पर इन लेखों का मूल स्वर साहित्य से अधिक निकटता रखता है। कुमकुम गुप्ता का गीत तथा भगवानदास जैन की ग़ज़ल अच्छी व नए विचारों का पोषण करती जान पड़ती है।इस अंक की कहानियां निष्प्रभावी रही है। इनमें ऐसा कुछ नहीं है जिसकी चर्चा की जाए। एडगर एलन पो की कहानी का अनुवाद इंदुप्रकाश कानूनगो ने सटीक व रूचिकर अनुवाद किया है, जिसमें रचना का मूल स्वर अपनी विशिष्टता के साथ निखरता चला गया है। पत्रिका की समीक्षाएं ठीक ठाक कही जा सकती है। संपादकीय वह, जो हम भूल रहे हैं अधिक लम्बा होते हुए भी संग्रह योग्य है। अच्छे साक्षात्कार युक्त अंक के लिए पत्रिका की टीम बधाई की पात्र है।
akhilesh ji सादर नमस्कार, आप यह काम इतनी प्रतिबद्धता से कर रहे हैं इसके लिए आप बधाई के पात्र है.. बहुत कुछ तो समीक्षा पढ़ कर ही पता लग जाता है.. आभार.
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