पत्रिका-कथादेश, अंक-जनवरी.10, स्वरूप-मासिक, संपादक-हरिनारायण, पृष्ठ-96, मूल्य-20रू.(वार्षिक 200रू.), फोनः (011)22570252, ई मेलः kathadeshnew@gmail.com ,सम्पर्क-सहयात्रा प्रकाशन प्रा. लि. सी-52, जेड़-3, दिलशाद गार्डन, दिल्ली 110.095
पत्रिका कथादेश का यह अंक साहित्यिक सामग्री से परिपूर्ण है। अंक में पांच अच्छी कहानियों का प्रकाशन किया गया है। जिनमें प्यार बाज़ार(विभांशु दिव्याल), छूटती हुई दुनिया(जयशंकर), अश्वमेघ(राजकुमार राकेश), वृहस्पति ग्रह(मनमोहन बावा) तथा गुजरना एक हादसे से(शीरीं) शामिल है। इनमें जयशंकर जी की कहानी छूटती दुनिया तथा राजकुमार राकेश की अश्वमेघ विशेष रूप से आज के वातावरण तथा उससे जुड़ी हुई विषमताओं को पाठकों के सामने रखती है। पुरूषोत्तम के प्रेम की अकथ कहानी(अर्चना वर्मा), लो वो दिखाई पड़े.हुसेन(अखिलेश) तथा धूमण्डलीकरण की संस्कृति(शुभनाथ) आलेख इन लेखकों की गहरी सोच का परिणाम है। इनमें वर्णित विषयों से आम पाठकों को जोड़कर बांधे रखने का प्रयास किया गया है। वीरेन्द्र कुमार वरनवाल का आलेख ‘गांधी और उत्तर आधुनिक बोध’, डाॅ. एल. हनुमंतैया पर विशेष सामग्री व हषीकेश सुलभ, देवेन्द्र राज अंकुर के आलेख हमेशा की तरह पत्रिका को उत्कृष्ट बनाते हैं। अनिल चमडिया तथा अविनाश लगातार अपने अपने विषयों पर गंभीर शोध तथा अध्ययन को पश्चात पाठकोपयोगी सामग्री लिख रहे हैं। अंक में बसंत त्रिपाठी, शरद कोकास तथा धमेंद्र कुशवाह की कविताओं को स्थान दिया गया है। इनमें शरद कोकास की कविताएं अर्थी सजाने वाले, बदबू तथा हैलमेट वर्तमान संदर्भ से जुड़कर भी अपने अतीत व इतिहास पर गहन दृष्टि डालती है। इनमें आधुनिकता व प्रगतिशीलता के मध्य का मार्ग चुना गया है। जिसकी वहज से ये कविताएं युवा वर्ग में अपने कर्तव्यों के प्रति चेतना जाग्रत करने का प्रयास करती दिखाई देती हैं। पत्रिका में प्रकाशित अन्य सामग्री, समीक्षाएं तथा रचनाएं भी प्रशंसनीय हैं। पत्रिका में कुछ चुने हुए रचनाकार ही स्थान पाते रहे हैं नए व अच्छा लिखने वाले प्रायः पत्रिका द्वारा उपेक्षित ही किए गए है। यह कमी इस पत्रिका में बहुत अखरती है। लेकिन फिर भी पत्रिका का स्वर व उसकी रचनाओं की सार्थकता को हर पाठक स्वीकार करेगा।
"त्रिका में कुछ चुने हुए रचनाकार ही स्थान पाते रहे हैं नए व अच्छा लिखने वाले प्रायः पत्रिका द्वारा उपेक्षित ही किए गए है।"
ردحذفयह आमतौर पर हर प्रकाशन पर लागू होता है. इस वर्चस्व को ही तो ब्लाग की दुनिया तोड़ रही है आज.
यह पत्रिका चंद यशप्रार्थी लेखकों के भँवरजाल में कुछ इस तरह उलझ कर रह गई है कि इसका हर अँक यकसा दिखलाई देता है. नतीजतन नया पाठक इसका पहला अंक पढ़ता है, दूसरा अंक देखता है, तीसरे अंक के पन्ने पलटता है और चौथे अंक को दूर से ही प्रणाम कर देता है. इसे `नया ज्ञानोदय' और `वागर्थ' यहाँ तक कि सेमी-साहित्यिक पत्रिका `अहा जि़दगी'से सीख लेनी चाहिए जिनका हर नया अँक पिछले अंक की परछाईं से मुक्त रहता है.
ردحذفशशांक दुबे
Thanks kathadesh
ردحذفनमस्कार महाशय !...
ردحذفआज ही पी.सी.टण्डन जी की यूट्यूब कक्षा को सुनते हुए आपकी(कथा देश पत्रिका)जानकारी मिली । खुशी हुई। आशा है जल्द पत्रिका के आनंद का लाभ उठाएंगे।
धन्यवाद!....नमस्कारान्ते !....."मन".
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