पत्रिका: हंस, अंक: अक्टूबर 2010, स्वरूप: मासिक, संपादक: राजेन्द्र यादव, पृष्ठ: 96, मूल्य: 25रू.(वार्षिक 250 रू.), ई मेल: editorhans@gmail.com , वेबसाईट/ब्लाॅग: http://www.hansmonthly.in/ , फोन/मो. 011.41050647, सम्पर्क: अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 2/36, अंसारी रोड़, दरियागंज नई दिल्ली 02
कथा प्रधान मासिक हंस के समीक्षित अंक में प्रकाशित कहानियों में से कुछ आज के वातावरण व युवा पीढ़ी की सोच पर सटीक बैठती हैं। रेडियो(रामधारी सिंह दिवाकर), बस एक कदम(जकीय जुबेरी), मुक्ति(नीलेन्दु सेन), फटी हुई बनियान(भवानी सिंह), उपकथा(दीपक शर्मा) तथा पहाड़े पहाड़े प्रेम के पत्थर(प्रमोद सिंह) की कहानियों में यह सोच दिखाई देती है। भोलानाथ कुशवाहा, सुहेल अख्तर, उपेन्द्र कुमार की कविताएं सार्थक रचनाएं हैं। शमशेर जी पर आलेख पढ़कर लगा कि लेखक ने केवल शमशेर बहादुर के समग्र का सतही तौर पर अध्ययन कर लेख लिख डाला है। अशोक अंजुम तथा डाॅ. ओम प्रभाकर की ग़ज़लें प्रभावशाली हैं। बहुत दिनों बाद हंस में अच्छा गीत (मदन केवलिया का गीत) पढ़ने में आया है। गंगा शरण शर्मा के हाइकू गीत भी ठीक ठाक हैं। पत्रिका की सबसे बेकार व प्रभावहीन रचना ‘‘कालम जिन्होंने मुझे बिगाड़ा’’ के अतंर्गत प्रकाशित की गई है। मंजरी श्रीवास्तव(मैं पैदाईशी बिगडैल हूं) पढ़कर लगता हैै कि हम सत्यकथा या मनोहर कहानियां पढ़ रहे हैं। हंस का अपना एक स्तर है, आज इस पत्रिका को विश्व स्तर पर हिंदी साहित्य की प्रमुख पत्रिका माना जाता है। इसमें इस तरह के तर्कहीन, गैर साहित्यिक लेख प्रकाशित करने का कोई मतलब नहीं है। वहीं दूसरी ओर अब साहित्यिक पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। इस स्थिति में दुनिया भर के लोग हिंदी साहित्य ये जुड़ रहे हैं। जब वे हंस में इस तरह की रचनाएं पढ़ेंगे तो हिंदी साहित्य के बारे मंे किस तरह की धारणाएं बनायेंगे यह सोचने वाली बात है। शीबा असलम फहमी ने बहुत दिन बाद विवादों से परे हटकर अपनी बात कहने के लिए एक गंभीर व सार्थक विषय चुना है इसके लिए वे बधाई की पात्र है। बीच बहस में के अंतर्गत प्रकाशित लेखों में केवल ‘‘मुझे इन प्रेतों से बचाओ’’’(विश्वनाथ) ही अच्छा व सारगर्भित है। हमेशा की तरह भारत भारद्वाज ने अपने स्तंभ के साथ पूरा पूरा न्याय किया है। पत्रिका की अन्य रचनाएं, स्तंभ, समाचार आदि समयानुकूल व पठनीय हैं।
अति सुन्दर प्रस्तुति . धन्यवाद
ردحذفअब साहित्यिक पत्रिकाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। तो भाई इन का लिंक भी देते तो अच्छा था.
pahaade pahaade prem ke patthar kahani jo pramod singh ki likhi hai usaka toh jawaab nahin hai
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