पत्रिका: पाखी, अंक: मार्च2010, स्वरूप: मासिक, संपादक: अर्पूव जोशी, पृष्ठ: 96, मूल्य:20रू.(वार्षिकः 240), ई मेल: pakhi@pakhi.in , वेबसाईट: http://www.pakhi.in/ , फोन/मो. (0120)4070300, सम्पर्क: इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी, बी.107, सेक्टर 63, नोएडा 201303 उ.प्र.
अग्रिम पक्ति की पत्रिका पाखी का समीक्षित अंक विविधतापूर्ण साहित्यिक सामग्री से युक्त है। अंक में प्रकाशित कहानियों में - होम लेस(तेजेन्द्र शर्मा), अकेली(गजेन्द्र रावत) एवं अब बेवफा सा लगता है(मंजुलिका पाण्डेय) प्रमुख हंै। ख्यात कथाकार तेजेन्द्र शर्मा की कहानी नए संदर्भो से युक्त होते हुए भी कलात्मक रचना है। नीलाभ, ओम भारती, रोहित प्रकाश एव विनीत उप्पल की कविताएं आम आदमी की समस्याओं के इर्द गिर्द बुनी गई हैं। जहां इनमें कहीं ‘अनुमान’ है तो कहीं ‘असफलता’ भी। वहीं दूसरी ओर ‘दोस्त के लिए’ है तो ‘आत्म कथ्य’ भी। रमेश मनोहरा व अनिल कार्की के गीत आस्वस्त करते हैं कि गीत विधा में भी काफी कुछ कहा जा सकता है। आलेख ‘आलोचना बनाब फतवेबाजी’(अश्विनी कुमार), रिपोर्ट ‘उस रहगुजर की तलाश है’(राजेन्द्र राव) व बीच बहस में ‘बातचीत में अनपढ़ता की बू(अनुज) अच्छी व पठनीय रचनाएं हैं। पुण्य प्रसून वाजपेयी का आलेख ‘खान माने आतंकी नहीं’, दावं पर लगी प्रतिष्ठा(विनोद अनुपम) व ‘वरिष्ठ लेखक की नाराजगी’(रवीन्द्र त्रिपाठी) पाठक के मतिष्क को उर्जा प्रदान करते हैं। ‘घिरे हैं हम सवालों से’(प्रेम भारद्वाज), ‘टिपटिपाइये मगर ध्यान से’(प्रतिभा कुशवाहा) व अन्य रचनाएं, लघुकथाएं साहित्येत्तर विषया होने के बावजूद भी समसामयिक व विचार करने योग्य हंै। पत्रिका का प्रमुख आकर्षण संपादकीय ‘महानायक’ या रीढ़विहीन ‘भांड़’ है। जिसमें आक्रमकता के साथ साथ सोचने समझने के लिए भी पर्याप्त सामग्री है। अन्य रचनाएं, स्तंभ व समीक्षाएं भी पत्रिका को स्तरीय बनाती है।

2 टिप्पणियाँ

  1. पाखी का यह संपादकीय पढा था और इससे इस पत्रिका की वामपंथी सोच का निम्नस्तरपन ही दृष्टिगोचर होता है। सस्ते प्रचार पाने के तरीके से हिन्दी पत्रिका बाज आ ही नहीं सकती, धिक्कार है।

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