पत्रिका: समापवर्तन, अंक: फरवरी2014, स्वरूप: मासिक, संपादक: मुकेश वर्मा, निरंजन श्रोत्रिय, आवरण/रेखाचित्र: अक्षय आमेरिया, पृष्ठ: 64, मूल्य: 150रू.(वार्षिक 1500रू.), ई मेल: ,वेबसाईट: उपलब्ध नहीं , फोन/मोबाईल: 0734.2524457, सम्पर्क: ‘‘माधवी’’ 129, दशहरा मैदान, उज्जैन म.प्र.
विगत छः वर्ष से लगातार हिंदी साहित्य की अग्रणी पंक्ति में शामिल इस पत्रिका का स्वरूप निरंतर निखरता गया है। इस ब्लाग पर पत्रिका के अनेक ख्यातअंकों की समीक्षा की गई है। यह अंक भी अपने पूर्ववर्ती अंकों के समान साहित्यमर्मज्ञों तथा आम पाठकों के लिए समान रूप से उपयोगी व संग्रह योग्य है। यह अंक ख्यात साहित्यकार अभिमन्यु अनत तथा सुप्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित रघुनाथ सेठ पर एकाग्र है। अनत जी का आत्मकथ्य ‘‘मैं जब चरित्रहीन पढ़ रहा था’’ उनके लेखक होने की पीड़ा का मार्मिक दस्तावेज है। उनकी कविताएं विशेष रूप से गंूगा इतिहास, चार भाव विचारयोग्य है। माॅरिशस तथा काफी हाउस पर उनके विचार देश विदेश में हिंदी साहित्य के विकास व विस्तार पर विचार है। गोयनका जी ने उनका साक्षात्कार लिया है जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि सृजन प्रक्रिया भोगी हुई पीढ़ा की पुनरावृत्ति होती है। कथन स्पष्ट करता है कि वे साहित्य के लिए किस हद तक व कितने अधिक समर्पित हैं। अविनाश मिश्र की कविताएं (संपादक निरंजन श्रोत्रिय का चयन), ख्यात आलोचक धनंजय वर्मा का दर्दे बयां ‘‘खुतूत से नुमाया तक’’, विनय मिश्र, संजय कुंदन की ग़ज़लें कविताएं दिन ब दिन बदल रहे हालातों पर सच्ची प्रतिक्रिया है। रमेश दवे, प्रभाकर श्रोत्रिय जी के आलेख धर्मपाल की रचना पत्रिका के अन्य आकर्षण हैं। ख्यात आलोचक लेखक कृष्णदत्त पालीवाल, विनोद शाही, नर्मदा मर्मज्ञ अमृतलाल बेंगड़ का भाषान्तर अंतर्मन की गहराई तक पाठक को प्रभावित करते हैं। स्व. डाॅ. हरिकृष्ण देवसरे का आलेख बांसुरी की सरसता तथा मधुरता का मार्मिक चित्रण है। पंडित रघुनाथ सेठ के संगीत योगदान पर जगदीश कौशल का लेख तथा उनसे रफी शब्बीर एवं सुनीरा कासलीवाल की बातचीत सातों सुर की मधुरता संजोए हुए है। पत्रिका की अन्य रचनाएं भी प्रभावित करती है। पत्रिका समावर्तन के संग्रह योग्य सृजन प्रस्तुतिकरण के लिए माननीय श्री प्रभात कुमार भटटाचार्य जी विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं जिनके अथक प्रयासों से हिंदी को अमूल्य व संग्रह योग्य रचनाएं प्राप्त हो रही है।
सुन्दर संग्रह हार्दिक बधाई स्वरचित रचना पुस्तक प्रकाशन में से-
ردحذفकवि हूँ मैं सरयू- तट केए - 2
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कवि हूँ मैं सरयू तट का
समय चक्र के उलट पलट का
युगों - युगों से मेरी अयोध्या
जाने हाल हर घट - पनघट का
हुआ प्रादुर्भाव श्री विष्णु का
पृथु – समक्ष रखा प्रस्ताव
निन्यानबे यज्ञों के विध्वंस कर्ता
इन्द्र को क्षमा दो रख समभाव
चाहें क्षमा अब देवराज
अपराध क्षमा हो उस नटखट का
समय - चक्र के उलट- पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(23)
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निरखे नयन हुये रसाल
दिव्य आनंद सोहत भाल
नारद ऋषि का करतल ताल
दमकी छवि माथे विशाल
वृक्ष मुदित हुआ हर वैट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
द्वापर में, दसरथ के लाल
औ त्रेता में नन्द गोपाल
बारह कला – मर्मज्ञ राम थे
सोलहों कला के नन्द गोपाल
रामायण – महाभारत लगे कि है टटका –टटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(24)
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प्रभु की लीला सुख -‘मंगल अपार
बोले राजन, लो करो ध्यान !
साधु और चरित्रवान
मानव होता श्रेष्ठ - महान
उसे न लगता अटका – झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
जो जीवों से द्रोह न करते
सब दुखियों के दु:ख जो हरते
प्यार उसी को हम करते
उसी की खातिर जीते – मरते
मेरा घ्यान उसी पर अटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(25)
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ज्ञानवान की यही है पहचान
अविद्या-वासना – विरक्तवान
गौ की जो सेवा है करता
वही ज्ञानी होता धनवान
विवेकी पुरुष कहीं न भटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
श्रद्धावान आराधना रत
वर्णाश्रम में पल – बढ़ कर
चित्त शुद्ध उसका हो जाता
तत्व - ज्ञान वही पाता नर
इधर –उधर तनिक न भटका
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(26)
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निर्गुण गुणों का पाकर आश्रय
आत्म शुद्ध नहीं रहता भय
उसी का जीवन होता रसमय
उसी के जीवन मेन होता लय
पकड़े पथ वही केवट का
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
शरीर ,ज्ञान ,क्रिया और मन का
जिस पुरुष को ज्ञान होता
आत्मा से निर्लिप्त रहता
वही मोक्ष पद योग्य है होता
होता न ज्ञान जिसे खटपट का
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(27)
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आवागमन को जो भूत हैं कहते
वे आत्मा को नहीं समझते
यहाँ - वहाँ हैं वही भटकते
जी नहीं पाते हैं वे डट के
उनका जीना अरवट – करवट का
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
जिसके चित्त में समता रहती
मेरा वास वहीं पे रहता
मन और इंद्रिय जीतकर
लोक पर राज वही करता
माया मोह को उसी ने पटका
कवि हूँ मैं सरयू – तट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(28)
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समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू - तट का
समय –चक्र के उलट –पलट का
पला –बढ़ा श्रीराम-चरण में
प्रतिपल रहता, मैं भी रण में
भीतर –बाहर किसके क्या है
इसे जान लेता हूँ क्षण में
झटका खा लेता हूँ लेकिन
किसी को नहीं देता झटका
राम –लक्ष्मण –भरत- शत्रुघ्न
सदा से पूजित रहे हमारे
इन्हीं के दम पर चमक रहे हैं
ग्रह – नक्षत्र औ नभ के तारे
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(29)
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भ्रम और समर्पण में बस
स्मरण मैं करता केवट का
संत –ऋषियों की हत्या ने
अंत लिख दिया था रावण का
रुद्र – रूप में कुपित हुये शिव
जगा भाग्य विभीषण का
जीत उसी की सदा ही होती
होता जो धैर्यवान जीवट का
कवि हूँ मैं सरजू तट का
समय –चक्र के उलट –पलट का
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कवि हूँ मैं सरयू –तट का / सुखमंगल सिंह(30)
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