पत्रिका: हिंदी चेतना, अंक: 53, वर्ष: 2012, स्वरूप: त्रैमासिक, प्रमुख संपादक: श्याम त्रिपाठी, संपादक: सुधा ओम ढीगरा, पृष्ठ: 84, मूल्य: प्रकाशित नहीं, ई मेल: hindichetna@yahoo.ca ,वेबसाईट: http://hindi-chetna.blogspot.com/ , फोन/मोबाईल: (905) 4757165 , सम्पर्क : 6 Larksmere Court, Markham, Ontario, L3R 3R1
कनाड़ा से प्रकाशित हिंदी चेतना ने उत्कृष्ट व सुरूचिपूर्ण रचनाओं का प्रकाशन कर साहित्य जगत में विशिष्ठ पहचान बनाई है। पत्रिका का प्रत्येक अंक साज सज्जा, कलेवर व प्रस्तुतिकरण के दृष्टिकोण से हिंदी प्रेमियों व साहित्य मर्मज्ञों के लिए सहेजकर रखने है। हिंदी चेतना की दूसरी प्रमुख विशेषता इसका इंटरनेट पर पाठकों के लिए मुफ्त उपलब्ध होना है। इसकी वजह से पत्रिका ने दुनिया भर में हिंदी जानने समझने वालों की संख्या के प्रचार प्रसार में अहम योगदान दिया है। पत्रिका का समीक्षित अंक हिंदी साहित्य की भारत से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं से कहीं से भी कम नहीं है। यह वड़े हर्ष का विषय है कि इसमें किसी मत-मतांतर, विचारधारा, दृष्टिकोण अथवा हस्ती की अपेक्षा रचना की श्रेष्ठता, मौलिकता व समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को ध्यान में रखकर प्रकाशित किया जाता है। इस अंक में ख्यात साहित्यकार रामेश्वर काम्बोज से पत्रिका की संपादक सुधा आंेम ढीगरा की बातचीत विचार योग्य है। एक प्रश्न के उत्तर में उनका कहना है, ‘‘लेकिन एक बात मुझे खटकती है कि कभी कभी प्रवासी श्रेणी में रखकर बहुत से अच्छे रचनाकारों को दरकिनार कर दिया जाता है।’’ यह हिंदी को वैश्विक व स्वीकार्य भाषा बनानें की राह में एक प्रमुख बाधा है। शीघ्र ही हमें जुगाड़धर्म से मुक्ति पा लेना चाहिए अन्यथा हम दुनिया से पिछड़ जाएंगे। शैल अग्रवाल की कहानी ‘‘आम आदमी’’ अपनी पारी आने के इंतजार में पंक्ति में खड़े अंतिम आदमी की कहानी है। यह वही आदमी है जो वर्षो से अपने उत्थान की बाट जोह रहा है। वहीं दूसरी ओर सुमन सारस्वत ‘‘डोंट टेल टू आंद्रे’’ में बहुत कुछ कह देती है, जिसे समझने के लिए दुनिया बेचैन है। गुल्ली डंडा और सियासतदारी’’ में मनोज श्रीवास्तव मनुष्य के बदलाव व इस बदलाव के लिए जिम्मेदार तत्वों की खबर लेते हैं। भावना सक्सेना ‘‘उसका पत्र’’ पढ़कर लगता है अधिक भावुक हो उठीं हैं। रवीन्द्र अग्निहोत्री ने हिबू्र भाषा से प्रेरणा लेने की आवश्यकता पर बल दिया है, अन्यथा हिंदी भाषा व साहित्य को भविष्य में कोई पूछने वाला भी नहीं रहेगा। कहानी संग्रह ‘‘कौन सी जमीन अपनी’’ परन मो. आसिफ व भानु चैहान का शोधपत्र इस संग्रह की बारीक पड़ताल करता दिखाई देता है। देवी नागरानी, नीरज गोस्वामी, राजीव भरोल की ग़ज़लें सिद्ध करती हैं कि हिंदी ग़ज़लें अब पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी है, जिनकेे विषय आमजन से जुडे़ हुए हैं। दीपका मशाल की लघुकथा ‘‘जिजीविषा’’, सुमन घई(विवशता) तथा श्याम सुंदर दीप्ति(बूढ़ा रिक्शेवाला) में दैनिक जीवन की कश्मकश तथा आकांक्षा व्यक्त करते हैं। अनीता कपूर, रमेश मित्तल, पूर्णिमा वर्मन, पंकज त्रिवेदी, प्रतिभा सक्सेना, दिपाली सांगवान, जितेन्द्र जौहर, रश्मि प्रभा, स्वर्ण ज्योति, भावना कुंअर तथा हरदीप कौर संधु की कविताएं जीवन की समस्याओं तथा रोजमर्रा के विषयों से जुड़ी हुई कविताएं हैं। इनमें जहां एक ओर भारतीय पंरपरा, संस्कृति व समाज है वहीं दूसरी ओर इस समाज को आकाश के अनंत छोर तक ले जाने का दृढ़ संकल्प भी है। ख्यात कथाकार डाॅ. अचला शर्मा की कहानियों पर विजय शर्मा का आलेख उन्हें और अधिक पढ़ने केे लिए प्रेरित करता है। विजय सती की समीक्षा पुस्तक ‘‘वेयर डू आई बिलांग’’ के उद्देश्यों से अवगत कराती है। रमेश शौनक का काव्यानुवाद तथा नवांकुर अमित लव की रचनाएं स्तरीय हैं। अमिता रानी, राजकुमारी सिन्हा, सुरेन्द्र पाठक, सुधा मिश्रा, प्रेम मलिक, अदिति मजुमदार, राज माहेश्वरी ने बहुत सुंदर ढंग से कविता को अन्य कलाओं से जोड़ने का प्रशंसनीय कार्य किया है। पत्रिका के प्रमुख संपादक श्याम त्रिपाठी की हिंदी के भविष्य के प्रति चिंता आज आम हिंदी प्रेमी की चिंता है। संपादक सुधा ओंम ढीगरा रचनाकारों से आग्रह करती हैं कि वे इंटरनेट अथवा अन्य माध्यमों में अपने प्रकाशित होने की जल्दबाजी में न रहें। पत्रिका की अन्य रचनाएं, समाचार आदि भी प्रभावित करते हैं।

3 تعليقات

  1. hindi chetna ke bare men jankar khushi hui.....

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  2. अखिलेश शुक्ल जी आपका यह समीक्षा-कार्य सराहनीय है । आप सबको जोड़े हुए हैं । आपकी समीक्षा के कारण जो हिन्दी चेतना से नहीं जुड़ सका है , उसे भी जुड़ने का अवसर मिलेगा ।

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    1. आदृत्य अखिलेश जी!
      आपके द्वारा 'हिंदी चेतना' की की-गई समीक्षा पढ़ी। 'हिंदी चेतना' एक अद्भुत आयोजन है। डा. श्याम त्रिपाठी और डा. सुधा ओम ढींगरा के श्रम का यह प्रतिफल है। साहित्य में समीक्षक की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। आज के परिवेश में और ख़ासतौर से हिंदी-साहित्य के मौज़ूदा दौर में निष्पक्ष समीक्षा दुर्लभ-सी होती जा रही है। बड़ा दुख होता है कि एक अच्छा लेखक इसलिए गर्त में चला जाता है कि उसका कोई अपना समीक्षक नहीं होता। हर लेखक ने अपना एक समीक्षक पाल रखा है। मैंने खुद कुछ लेखकों को अपने समीक्षकों से बात करते हुए सुना है कि आपने फलां पत्रिका में मेरी प्रकाशित रचना के बारे में कुछ लिखा क्यों नहीं। नामी-गिरामी समीक्षक लेखकों को प्रायोजित करने की आपत्तिजनक भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। यह आचरण साहित्य के स्तर की अवनति का प्रमुख कारण है।

      आपकी समीक्षा इन लांछनों से अछूता है। आप जैसे समीक्षकों से साहित्य का स्तर ऊंचा उठेगा।

      आपका,
      डा. मनोज श्रीवास्तव।

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