पत्रिका: हिंदी चेतना, अंक: 52, वर्ष: 13, स्वरूप: त्रैमासिक, प्रमुख संपादक: श्याम त्रिपाठी, संपादक: सुधा ओम ढीगरा, पृष्ठ: 84, मूल्य: प्रकाशित नहीं, मेल: hindichetna@yahoo.ca ,वेबसाईट: www.vibhom.com , फोन/मोबाईल: (905)475-7165 , सम्पर्क: 6, Larksmere Court, Markham, Ontario, L3R, 3R1,
कनाड़ा से प्रकाशित हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘‘हिंदी चेतना’’ द्वारा प्रतिवर्ष संग्रह योग्य, पठनीय विशेषांकों का प्रकाशन किया जाता रहा है। इस वर्ष पत्रिका का विशेषांक हिंदी साहित्य के प्रख्यात व्यंग्यकार, संपादक प्रेम जनमेजय पर एकाग्र है। सामान्यतः किसी साहित्यकार पर विशेषांक प्रकाशित करने का जोखिम पत्रिकाएं कम ही लेती है। क्योंकि इससे कभी कभी पत्रिका की लोकप्रियता में कमी आने का अंदेशा बना रहता है। जब साहित्यकार कोई व्यंग्यकार हो, तथा वर्तमान में सृजनरत हो तो पत्रिका की स्वीकार्यरता अधिक प्रभावित होने की संभावना बनी रहती है। लेकिन यह प्रसन्नता की बात है कि हिंदी चेतना सभी स्थापित मानदण्ड़ों पर खरी उतरी है। पत्रिका ने बिना किसी पूर्वाग्रह के प्रेम जनमेजय जी के साहित्यिक अवदान पर आलेखों का प्रकाशन किया है।
पत्रिका का प्रमुख आकर्षण ख्यात रचनाकार, उपन्यासकार पंकज सुबीर से उनकी बातचीत है। इस वार्ता में साहित्य जगत में व्यंग्यविधा तथा उसके दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला गया है। एक प्रश्न के उत्तर में वे स्वंय स्वीकार करते हैं कि, ‘‘ मैं बहुत ही आशावान व्यक्ति हूं और व्यंग्यकार के रूप में नकारात्मक दृष्टि होने के बावजूद सकारात्मक दृष्टिकोण रखता हूं।’’ यह सच है कि किसी भी विधा में सकारात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है अन्यथा साहित्य अपने उद्दश्यों से भटककर समाज को द्ग्भ्रिमित करेगा। अन्य रचनाकारों लेखकों ने उनके सृजन,लेखन, संपादन, व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर विस्तार से अपने विचार रखे हैं। उनमें प्रमुख हंै--
डाॅ. मनोज श्रीवास्तव -- प्रेम जनमेजय ऐसे व्यंग्यकार हैं जो भले ही बड़ी मात्रा में न लिखते होें, किंतु वे जब भी लिखते हैं, उनका व्यंग्य पिछली रचना से दो कदम आगे, पुनरावृत्ति मुक्त और पहल से अधिक तराशा हुआ होता है।
प्रदीप पंत -- प्रेम (ढाई आखरवाला) के जितने रंग होते हैं, प्रेम जनमेजय के भी उतने ही हैं, बल्कि अनेक विरोधी रंग भी हैं।
सूरज प्रकाश -- उन्होंने अपने हिस्से के संघर्ष किए हैं लेकिन कभी भूले से भी उनका जिक्र करना पसंद नहीं किया।
डाॅ. अशोक चक्रधर -- प्रेम के अंदर विश्लेषण शक्ति रखने वाला एक श्रेष्ठ रचनात्मक और संवेदनशील लेखक है।
मनोहर पुरी -- वह अपने मित्रों सहयोगियों और साहित्यपे्रमियों से सहयोग लेने में कोई गुरेज नहीं करते परंतु उनकी दृष्टि व्यावसायिकता से कोसों दूर रहती है।
सूर्यबाला -- सादगी की छटा उनकी सहज प्रवाही बातों में विद्यमान रहती है। बड़ों के लिए एक अक्रत्रिम सम्मान भाव तथा छोटों के लिए स्नेह संरक्षण का विश्वसनीय संबल।
तरसेम गुजराल -- प्रेम जनमेजय बाजारवादी शक्तियों की नृशंसता, बर्बरता और आतंक से बाखूबी परिचित हैं।
यज्ञ शर्मा -- प्रेम जनमेजय की कर्मठता का प्रमाण है उनके लेखन की व्यापकता।
डाॅ. नरेन्द्र कोहली -- प्रेम के साथ अपने संबंध को किसी रिश्ते में बांधने में मुझे कठिनाई का अनुभव होता है। .... इस प्रकार सोचता हूं कि वह मुझे अपने पुत्र कार्तिकेय और अपनी पीढ़ी के बीच की पीढ़ी का लगता है।
उषा राजे सक्सेना -- प्रेम जनमेजय एक सह्दय, उदार मनुष्य हैं, जिनकी सदाश्यता में अनेक लेखक जन्म लेते हैं, पनपते हैं और फिर सघन वृक्ष बनकार दूसरों को छाया देते हैं।
अनिल जोशी -- (प्रेम जनमेजय से साक्षात्कार) ‘‘मेरा नाम प्रेम है, पेे्रम चोपड़ा नहीं। साहित्य में जीवंतता साश्वत तथ्यों से आती है, सनसनी से नहीं।’’ अनिल जोशी के प्रश्न ‘आप सिर्फ नाम के प्रेम हैं?’ के उत्तर में।
गिरीश पंकज -- पे्रेम जी का व्यंग्य अपनी मौलिक स्थापनाओं के कारण अलग से पहचाना जाता है।
ज्ञान चतुर्वेदी -- मुझे अपनी इस मित्रता पर गर्व है। ‘पे्रेम को दुनियादारी की खासी समझ है और इस दुनिया की भी।’
महेश दर्पण -- वह स्वयं को नहीं दूसरों को सामने या केंद्र मंे रखने में विश्वास रखते हैं।
अजय अनुरागी -- व्यंग्य के संरक्षण और संवर्धन के लिए किए जा रहे उनके प्रयास उल्लेखनीय हैं।
प्रताप सहगल -- प्रेम के दोनांे नाटक, व्यंग्य नाटक की दुनिया में नया दखल है।
प्रो. हरिशंकर आदेश -- प्रेम जनमेजय संज्ञा है एक ऐसे व्यक्ति की जो साक्षात् प्रेम की प्रेममूर्ति है।
अविनाश वाचस्पति -- प्रेम व्यंग्य में और व्यंग्य प्रेम में कुछ इस कदर घुलमिल गया है कि यह घुलना मिलना मिलावट नहीं है।
राधेश्याम तिवारी -- अपने निजी जीवन में प्रेम जनमेजय को मैंने जितना आत्मीय पाया, एक लेखक के रूप में भी वे मुझे उतने ही आत्मीय लगे।
अजय नावरिया -- प्रेम जनमेजय केवल सांसारिक जीव ही नहीें है बल्कि एक उदार क्षमाशील, संवेदनशील और परदुःखकातर मनुष्य भी हैं।
वेदप्रकाश अमिताभ -- प्रेम जनमेजय का व्यंग्य कहीं हथौड़ा बनकर टूटा है तो कहीं आलपिन तीक्ष्ण चुभन का अहसास देता है।
लालित्य ललित -- (वार्ताकार) व्यंग्य लेखन पर उसकी दशा पर क्यसा कहेंगे? ‘‘ पूरे हिंदी साहित्य की दिशा ही सही नहीं है। मूल्यांकन का आधार कृति कम कृतिकार अधिक है ....। ’’
इन महत्वपूर्ण विचारों के साथ ही प्रमुख संपादक श्याम त्रिपाठी ने स्पष्ट किया है कि, ‘‘प्रेम जी के इतने अधिक प्रेमी होगें इसका मुझे गुमान ही नहीं था।’’ कथन प्रेम जनमेजय की साहित्यजगत में सह्दयता तथा लोकप्रियता को सामने लाता है। संपादक सुधा ओम ढीगरा ने पत्रिका की रीति नीति के संबंध में लिखा है, ‘‘हिंदी चेतना की टीम किसी वादविवाद, राजनीति या गुटबंदी, विचारधार व विमर्श से परे होकर स्वतंत्र सोच व विचार से कार्य करती है। प्रेम जनमेजय विशेषांक उसी सोच का परिणाम है।
पत्रिका का समीक्षित अंक वर्तमान हिंदी साहित्य को नई दिशा देने में कामयाब होगा। इसी कामना के साथ अच्छे, पठनीय अंक के लिए बधाई।

3 टिप्पणियाँ

  1. जो मित्र पीडीएफ में पत्रिका का यह अंक विशेष पाना चाहें nukkadh@gmail.com पर अपनी ई मेल भेजें। अंक मिलेगा।

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  2. मान्यवर मेरे एप्लीकेशन कुबूक करते हुये यै पी डी एफ मुझे भी भेजें
    navincchaturvedi@gmail.com

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  3. श्रीमान जी मेरा तो शोध विषय ही प्रेम जनमेजय जी पर है कृपया मुझे भि यह अंक भेज दें . आभार
    anilupadhyay87@gmail.com

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