पत्रिका: साक्षात्कार, अंक: अप्रैल2011, स्वरूप: मासिक, संपादक: प्रो. त्रिभुवन नाथ शुक्ल, , पृष्ठ: 120, मूल्य: 25रू (वार्षिक: 250 रू.), मेल: sahityaacademy.bhopal@gmail.com ,वेबसाईट: उपलब्ध नहीं, फोन/मोबाईल: 0755.2554782, सम्पर्क: साहित्य अकादमी, .प्र. संस्कृति परिषद, संस्कृति भवन, वाण गंगा भोपाल .प्र.
इस अंक में ख्यात साहित्यकार डाॅ. सुधेश से जगन्नाथ पण्डित की बातचीत साहित्य के उन अनझुए पहलुओं पर विमर्श है जिनके बारे में अधिकांशतः विचार नहीं किया जाता है। जैस वैचारिक प्रबिद्धता को लेकर काफी कुछ कहा गया है लेकिन डाॅ. सुधेश स्पष्ट करते हैं कि वैचारिक प्रतिबद्धता तथा विचारधारा दोनों एक नहीं है। इलेक्ट्रनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव को लेकर वे चिंतित दिखाई देते हैं क्योंकि इससे आम पाठक साहित्य के कट रहा है। प्रो. राजाराम के आलेख कला और विचार: भारतीय समकालीन संदर्भ’ में लिखा है कि प्रयोग वादी सारे रचनाकार जैसे माने, मनोने, मातीस, पिकासो, जेक्सन पोलाक तथा अन्य प्रखर बौद्धिक थे। यह भी सच है कि योरोपिय क्लासिकी कला परंपरा तथा धर्म गुरूओं से लोहा लेने के कारण एक तरह से परंपरा का क्षरण हुआ है।
सुरेन्द्र सिंह पवार ने अपने आलेख ‘पवांर राजभोज’ में राजा भोज की रीति नीति पर विस्तार से प्रकाश डाला है। माताचरण मिश्र की कहानी ‘गंगादास’ वर्तमान शोर सराबे से उपजे उब की कहानी है। डाॅ. लता अग्रवाल की कहानी ‘सिंदूर का सुख’ में कहीं से भी ऐसा नहीं लगा कि विषय वस्तु में नवीनता है व इसका कथानक जन सामान्य को प्रेरित करता है। शिवनारायण जौहरी, कुमार सुरेश, डाॅ. मधुरेश नंदन कुलश्रेष्ठ, राजेन्द्र अग्रवाल व ऋषिवंश,सुरजीत पवार की कविताओं की अपेक्षा नई कलम कु. आस्था पुरी की कविताओं में अधिक पैनापन व समाजबोध दिखाई देता है। पत्रिका की अन्य रचनाएं समीक्षाएं आदि भी इसके पूर्ववर्ती अंकों के समान एक रूटीन प्रकाशन है। व्यक्ति और दंश को लेकर लिखा गया संपादकीय पत्रिका की सबसे अधिक उपयोगी व सारगर्भित विचार कहें जा सकते हैं।

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