पत्रिका: पाखी, अंक: अगस्त 2010, स्वरूप: मासिक, संपादक: अपूर्व जोशी, पृष्ठ: 96, मूल्य:20रू.(.वार्षिक 240रू.), ई मेल: pakhi@pakhi.in , वेबसाईट/ब्लाग: www.pakhi.in , फोन/मो. 0120.4070300, सम्पर्क: इंडिपेडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी, बी-107, सेक्टर-61, नोएडा 201303
पाखी का समीक्षित अंक अपूर्व जोशी के संपादन में प्रकाशित होने वाला अंतिम अंक है। उन्होंने संपादकीय में स्पष्ट किया है कि आगामी अंक से संपादन प्रेम भारद्वाज करेंगे। उनके मन में कुछ नई योजनाएं हैं जिसके चलते वे संपाकीय से मुक्त होना चाहते हैं। वे अपनी योजनाएं स्पष्ट कर देते तो पाठकों को अपार संतुष्टि मिलती।
समीक्षित अंक में प्रकाशित कहानियों में समाज से किसी वजह से छिटके हुए लोगों के प्रति गहरी संवेदनाएं व्यक्त की गई हैं। इस भाव को आदमी का बच्चा(जयश्री राय), सड़क जाम(दिलीप कुमार), सारी मां(स्मिता श्रीवास्तव) एवं केशव बाबू क्यों केशव बाबू हैं(उन्मेष कुमार सिन्हा) की कहानियों में महसूस किया जा सकता है। जयश्री राय ने कहानी आदमी का बच्चा में स्पष्ट किया है कि आज आम आदमी किस कदर बाजारवादी मानसिकता से बंधा हुआ है। स्मिता श्रीवास्तव ‘सारी मां’ के माध्यम से मां की ममता को अपने जन्म लेने की पीड़ा से व्यक्त करना प्रारंभ करती हैं। उसके पश्चात वे मां के माध्यम से इस ममता की मूर्ति के प्रति अपनी सद्भावनाएं प्रगट करती हैं। अमरकांत की कहानी ‘जिंदगी और जोंक’ उस दौर की कहानी है जब जीवन में पीड़ा जोंक के रूप में विद्यमान थी। तब से लेकर आज तक हालातों में कोई तब्दीली नहीं आई है। निशांत, मनोज कुमार झा, कुमार अनुपम, रोहित प्रकाश, आतुतोष चंदन, मृत्यंुजय प्रभाकर एवं मंजुलिका मिश्रा की कविताएं जीवन के संघर्ष एवं पीड़ा को नए ढंग से पेश करती दिखाई पड़ती हैं। इन कविताओं में न तो बाजारवाद की चमक है और न ही प्राचीन भारतीय परंपरा को तोड़ने की कोई महत्वाकांक्षा। इनमें समाज से जिंदगी में समय के अनुरूप रद्दोबदल करने की कामना है। कृष्ण बिहारी और स्वतंत्र मिश्र के आलेख राय प्रकरण पर आखों देखा हाल जैसे लगते हैं। अब इसे बिभूतिनारायण जी एवं रवीन्द्र कालिया जी की माॅफी के समाप्त माना जाना चाहिए। इसी में साहित्य और हिंदी भाषा की भलाई है। राजीव रंजन गिरी ने पल्लव जी के संपादन में प्रकाशित पत्रिका बनास की एक तरह से समीक्षा ही की है। जिसमें उपन्यास सृजन व उसकी ग्राहयता पर काफी कुछ लिखा गया है। इस बार पुण्य प्रसून वाजपेयी का आलेख ‘पीपली लाईव से लुटियन लाइव’ नए बोतल में पुरानी शराब जैसा लगा। इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो उल्लेखनीय हो। विनोद अनुपम ने अलबत्ता ‘सिनेमा के संत का अवसान’ नामक अच्छा लेख लिखा है। प्रेम भारद्वाज का आलेख ‘मेरी मुश्किलों का हल’ में वे भले ही कोई हल न ढूंढ सके हो लेकिन आने वाले समय में पाखी का संपादन करते हुए अच्छी वजनदार रचनाओं(नामी गिरामी नामों से प्रभावित हुए बगैर) का ढूंढना ही होगा। उप संपादक प्रतिभा कुशवाहा अब ब्लाग एक्सपर्ट हो गई है। उन्होंने ‘नारायण नारायण .. ’ जपते हुए विभूति नारायण राय प्रकरण का न्यायोचित समाधान दिया है।
पत्रिका की अन्य रचनाएं, समीक्षाएं भी प्रभावित करती हैं। अब वन डाउन संपादक प्रेम भारद्वाज जी की धुआधार पारी का इंतजार है।
समीक्षित अंक में प्रकाशित कहानियों में समाज से किसी वजह से छिटके हुए लोगों के प्रति गहरी संवेदनाएं व्यक्त की गई हैं। इस भाव को आदमी का बच्चा(जयश्री राय), सड़क जाम(दिलीप कुमार), सारी मां(स्मिता श्रीवास्तव) एवं केशव बाबू क्यों केशव बाबू हैं(उन्मेष कुमार सिन्हा) की कहानियों में महसूस किया जा सकता है। जयश्री राय ने कहानी आदमी का बच्चा में स्पष्ट किया है कि आज आम आदमी किस कदर बाजारवादी मानसिकता से बंधा हुआ है। स्मिता श्रीवास्तव ‘सारी मां’ के माध्यम से मां की ममता को अपने जन्म लेने की पीड़ा से व्यक्त करना प्रारंभ करती हैं। उसके पश्चात वे मां के माध्यम से इस ममता की मूर्ति के प्रति अपनी सद्भावनाएं प्रगट करती हैं। अमरकांत की कहानी ‘जिंदगी और जोंक’ उस दौर की कहानी है जब जीवन में पीड़ा जोंक के रूप में विद्यमान थी। तब से लेकर आज तक हालातों में कोई तब्दीली नहीं आई है। निशांत, मनोज कुमार झा, कुमार अनुपम, रोहित प्रकाश, आतुतोष चंदन, मृत्यंुजय प्रभाकर एवं मंजुलिका मिश्रा की कविताएं जीवन के संघर्ष एवं पीड़ा को नए ढंग से पेश करती दिखाई पड़ती हैं। इन कविताओं में न तो बाजारवाद की चमक है और न ही प्राचीन भारतीय परंपरा को तोड़ने की कोई महत्वाकांक्षा। इनमें समाज से जिंदगी में समय के अनुरूप रद्दोबदल करने की कामना है। कृष्ण बिहारी और स्वतंत्र मिश्र के आलेख राय प्रकरण पर आखों देखा हाल जैसे लगते हैं। अब इसे बिभूतिनारायण जी एवं रवीन्द्र कालिया जी की माॅफी के समाप्त माना जाना चाहिए। इसी में साहित्य और हिंदी भाषा की भलाई है। राजीव रंजन गिरी ने पल्लव जी के संपादन में प्रकाशित पत्रिका बनास की एक तरह से समीक्षा ही की है। जिसमें उपन्यास सृजन व उसकी ग्राहयता पर काफी कुछ लिखा गया है। इस बार पुण्य प्रसून वाजपेयी का आलेख ‘पीपली लाईव से लुटियन लाइव’ नए बोतल में पुरानी शराब जैसा लगा। इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो उल्लेखनीय हो। विनोद अनुपम ने अलबत्ता ‘सिनेमा के संत का अवसान’ नामक अच्छा लेख लिखा है। प्रेम भारद्वाज का आलेख ‘मेरी मुश्किलों का हल’ में वे भले ही कोई हल न ढूंढ सके हो लेकिन आने वाले समय में पाखी का संपादन करते हुए अच्छी वजनदार रचनाओं(नामी गिरामी नामों से प्रभावित हुए बगैर) का ढूंढना ही होगा। उप संपादक प्रतिभा कुशवाहा अब ब्लाग एक्सपर्ट हो गई है। उन्होंने ‘नारायण नारायण .. ’ जपते हुए विभूति नारायण राय प्रकरण का न्यायोचित समाधान दिया है।
पत्रिका की अन्य रचनाएं, समीक्षाएं भी प्रभावित करती हैं। अब वन डाउन संपादक प्रेम भारद्वाज जी की धुआधार पारी का इंतजार है।
PAKHI PADHI TO THI PAR JO BACH GAYA USAKO PADHANE KI UTSUKTA AAPNE JAGAA DEE. KRISHNA BIHARI JI KA LEKH SACH MEN AANKHON DEKHA HAAL LAGAA .
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