पत्रिका: वागर्थ, अंक: जून2010, स्वरूप: मासिक, संपादक: विजय बहादुर सिंह, पृष्ठ: 122, मूल्य:20रू.(.वार्षिक 200रू.), ई मेल: bbparishad@yahoo.co.in , वेबसाईट/ब्लाॅग: http://www.bhartiyabhashaparishad.com/ , फोन/मो. 033.32930659, सम्पर्क: भारतीय भाषा परिषद, 36 ए, शेक्सपियर शरणि, कोलकाता 700.017
ख्यात साहित्यिक पत्रिका वागर्थ का जून 10 अंक प्रायः देश भर में देर से प्राप्त हुआ है। इस अंक में भी दस्तावेज के अंतर्गत प्रकाशित आलेख अपनी अलग छाप छोड़ते हैं। इनमें तुम्हारी जात पात की क्षय(राहुल सांकृत्यायन) व एक महापुरूष और एक जनकवि(कुबेरनाथ राय) प्रमुख है। ओड़िया के प्रतिष्ठित कवि सीताकांत महापात्र से साक्षात्कार(शंकरलाल पुरोहित से बातचीत) में उन्होंने कहा है- काल प्रवाह है, स्त्रोत है, धारा है कुछ भी कहा जाए एक ही है। अपनी बात में उन्होंने काल से संबंधित अवधारणा को सैद्धांतिकी का रूप दिया है। कविता के संबंध में उनके विचार हर भाषा व साहित्य के पाठकों को जानना चाहिए। हमीदा सालिब का मजाज़ लखनवी पर संस्मरण (अनुवाद-परवेज़ गौहर) में इस क्रांतिकारी शायर के कई रूप देखने में आते हैं। ध्रुव शुक्ल, प्रेमशंकर रघुवंशी, शहंशाह आलम, शैलेष, जितेेन्द्र श्रीवास्तव एवं रामजी यादव की कविताएं गंभीर होते हुए भी दुरूह नहीं है। शहरयार की डायरी पर दिलीप शाक्य की टिप्पणी एवं कांतिकुमार जैन का ललित निबंध जित देखो तित बांस ही बांस पढ़ कर सहेजने योग्य रचनाएं हैं। बुरहानपुर पर सुरेश मिश्र से बहुत ही परिश्रम से इतिहास लिखा है। रामविलास जी शर्मा के पत्र तन्मय शर्मा के बहाने(विजय मोहन शर्मा) पढ़कर रामविलास जी के विचारों को और भी निकटता से जाना जा सकता है। इस अंक की कहानियां ताला चाबी कहां है दी(मिथिलेश अकेला) एवं जश्न(लोकबाबू) अन्य रचनाओं की अपेक्षा कुछ कमजोर लगीं। इनकी अपेक्षा असमिया कहानी शून्यता की स्वप्न गाथा(गीताली वोरा, अनुवाद-दिनकर कुमार) एवं मलयालम कहानी बंजर भूमि (माधवी कुट्टी, अनुवाद-संतोष अलेक्स) अधिक सशक्त रचनाएं हैं। मुनव्वर राणा की ग़ज़ल तो प्रभावशाली है ही अखिलेश तिवारी भी कहीं से कम नहीं ठहरते। उन्होंने भी ग़ज़ल विधा का सही निर्वाहन किया है। पत्रिका की समीक्षाएं, अन्य रचनाएं व पत्र आदि भी वागर्थ पढ़ने के आनंद में वृद्धि करते हैं। पत्रिका का संपादकीय भी जानकारीप्रद व गंभीर चिंतन योग्य है।
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