पत्रिका: पाखी, अंक: अपै्रल10, स्वरूप: मासिक, संपादक: अपूर्व जोशी, पृष्ठ: 96, मूल्य:20रू.(वार्षिक 240रू.), ई मेल: pakhi@pakhi.in , वेबसाईट/ब्लाॅग: http://www.pakhi.in/ , फोन/मो. 0120.4070300, सम्पर्क: इंडिपेंडेंट मीडिया इनीशिएटिव सोसायटी, बी-107, सेक्टर 63, नोयडा 201303 उ.प्र.
साहित्य सरोकारों से जुड़ी पत्रिका पाखी का यह समीक्षित अंक पठनीय व मनन योग्य रचनाओं से भरपूर है। अंक में प्रकाशित कहानियों में चोट(बलराम), मां(दिनेश भटट), परछाइयों का नाच(शिवकुमार यादव) एवं डिपैशन(सुरिंदर कौर) प्रमुख हैं। इन कहानियों में देश की समस्याओं के साथ साथ सामाजिक परिवर्तन की सौधी सी महक महसूस की जा सकती है। कवितओं में उपेन्द्र कुमार, दिनेश श्रीवास्तव, उत्तिमा केशरी तथा शशिकला राय ने नए ढंग से कविता के शिल्प को सजाया है। अशोक विश्वकर्मा एवं छगनलाल सोनी की ग़ज़लें , ग़ज़ल के पैरामीटर पर पूरी तरह खरी उतरती हैं। जाहिद खान, राकेश बिहारी के आलेख तथा आकाश नागर की रपट में नवीनता है। कुमार अरविंद, भरत प्रसाद एवं अजय मेहताब ‘बीच बहस में’ बहस को न छोड़कर उसे किनारे तक ला सके हैं। राजीव रंजन गिरि एवं पुण्य प्रसून वाजपेयी हमेशा की तरह एक नया विचार, नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। विनोद अनुपम, रवीन्द्र त्रिपाठी एवं पे्रम भारद्वाज के स्तंभ अपनी अपनी विषय वस्तु को खंगालने के लिए आतुर दिखाई पड़ते हैं। इसमें वे कुछ हद तक सफल भी रहे हैं। प्रतिभा कुशवाहा ने भारतीय हिंदी ब्लाॅगजगत की ध्यान देने योग्य सामग्री अच्छी तरह से चुनकर प्रस्तुत की है। ख्यात कथाकार ज्ञान प्रकाश विवेक का संस्मरण तथा कंचना सक्सेना की लघुकथाएं पत्रिका को विस्तार देती हैं। पत्रिका पढ़कर कहीं से भी नहीं लगता है कि यह मात्र दो वर्ष पुरानी पत्रिका है। पत्रिका के संपादक अपूर्व जोशी ने ख्यात योग गुरू रामदेव के राजनीति में आगमन को लेकर जो चिंताएं जाहिर की हैं वे किसी भी गंभीर पाठक के लिए विचारणीय हैं।
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