पत्रिका: समावर्तन, अंक: फरवरी.10, स्वरूप: मासिक, संस्थापक: प्रभात कुमार भट्टाचार्य, प्रधान संपादक: मुकेश वर्मा, पृष्ठ: 90, मूल्य: 20रू.(वार्षिकः 240), ई मेल: samavartan@yahoo.com , वेबसाईट: उपलब्ध नहीं , फोन/मो. 0734-2524457, सम्पर्क: माधवी 129, दशहरा मैदान, उज्जैन म.प्र.
पत्रिका समावर्तन का समीक्षित अंक ख्यात कवि लीलाधर मंडलोई पर एकाग्र है। पत्रिका में उनकी कुछ कालजयी कविताएं जैसे सूत, नदी, आग, तितलियां, कालाहांडी, कबाड़खाना आज के वातावरण में व्यप्त संताप से जीवन में पे्ररणा देने के प्रति उत्सुक दिखाई देती हैं। हमारी पाठशाला, तोड़ल मौसिया की पंगत, टपके का डर पढ़कर उनकी गद्य पर पकड़ को जाना समझा जा सकता है। इन आलेखों में आम बोलचाल की भाषा, स्थानीय मुहावरों तथा संदर्भो का बड़ी कुशलता से प्रयोग किया गया है। ख्यात आलोचक डाॅ. नामवर सिंह ने मंडलोई जी की गद्य पुस्तक ‘दानापानी’ पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है, ‘मंडलोई की भाषा की क्षमता को देखकर अच्छा लगा।’ मंडलोई जी भाषा के साथ साथ उसके अंदर छिपे यथार्थ को खींचकर बाहर लाने में सफल रहे हैं। यह उनकी कविताओं से स्पष्ट होता है। महाश्वेता देवी व अरविंद त्रिपाठी ने मंडलोई जी की सरलता, सहजता व उनकी काव्यगत विशेषताओं को अपने आलेखों में स्पष्ट किया है।उनसे हरिभटनागर की बातचीत में उनका यह स्वीकारना कि, ‘मैं फ़िजूल का बड़ा ख़्वाब नहीं देखता जो कुव्वत से बाहर हो’ उनका बड़प्पन दर्शाता है। यह किसी भी व्यक्ति के लिए एक आदर्श वाक्य के समान है। ख्वाब देखने को वे अन्यथा नहीं लेते पर फ़िजूल के ख्वाब को देखना गैरजरूरी मानते हैं। वक्रोक्ति के अंतर्गत ख्यात व्यंग्यकार व पत्रिका व्यंग्ययात्रा के संपादक डाॅ. प्रेम जनमेजय पर कुछ सार्थक व उपयोगी आलेखों का प्रकाशन किया गया है। उनका व्यंग्य ‘राजधानी में गंवार’, लधुकथा देश भक्ति तथा ज्ञान चतुर्वेदी से मित्रता व उसपर गौरव पढ़ने योग्य रचनाएं हैं। वंचितों पर व्यंग्य करना वे उचित नहीं मानते हैं। उनका यह कहना बिलकुल सही है कि, ‘कोई विधा किसी रचना को श्रेष्ठ नहीं बनाती है अपितु श्रेष्ठ रचनाएं ही किसी विधा को श्रेष्ठ बनाती है। अन्य रचनाओं में राजकुमार कुंभज, रमेश चंद्र शर्मा, शशांक दुबे पठनीय हैं। आर. के. लक्ष्मण पर देवेन्द्र जी तथा हरिओम तिवारी के आलेख व साक्षात्कार उनके संबंध में काफी कुछ कहते हैं। इकबाल मजीद, रामकुमार तिवारी, रमेश दुबे की कविताएं अच्छी बन पड़ी हैं। सुरेश गर्ग एवं सुरेश शर्मा की लघुकथा भी अच्छे केनवास पर लिखी गई कथाएं हैं। डाॅ पुरू दधीच के बारे में जानकर उनके बारे में और अधिक पढ़ने की इच्छा होती है। पत्रिका की सामग्री सहेज कर रखने योग्य है। इतनी अच्छी पत्रिका के प्रस्तुतिकरण व संपादन के लिए पूरी टीम बधाई की पात्र है। और अंत मंे श्रीराम दवे का ‘मैं हूं न’ आप अवश्य पढ़ना चाहेंगे।
आपको तथा आपके परिवार को होली की शुभकामनाएँ.nice
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