पत्रिका-हंस, अंक-जनवरी 2010, स्वरूप-मासिक, संपादक-राजेन्द्र यादव, पृष्ठ-96, मूल्य-25रू.(वार्षिक 250रू.), फोनः (011)23270377, ई मेलः editorhans@gmail.com , वेबसाइटः http://www.hansmonthly.in/ , सम्पर्क-अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 2/36, दरियागंज, नई दिल्ली 110002, भारत
हिंदी साहित्य का अग्रणी कथा मासिक इस मायने में उल्लेखनीय है कि यह हर अंक में ऐसी सामग्री प्रकाशित करता है जो समसामयिक होने के साथ साथ पाठक के संग्रह योग्य भी होती है। समीक्षित अंक में कल फिर आना(तेजेेन्द्र शर्मा), एक मुरदा सिर की कथा(साजिद रशीद), भ्रमित(क्षितिज शर्मा), रंडी बाबू(ंसंजय कुमार सिंह) तथा आखिरी निशानियों को बचा लो(उषा ओझा) प्रकाशित की गई हैं। इनमें तेजेन्द्र शर्मा व क्षिति ज शर्मा की कहानियां ही विशेष रूप से प्रभावित करती हैं शेष में विषयों का दुहराव तथा बार बार एक ही बात को जोर शोर से उठाना अखरता है। कविता के मामले में हंस का प्रायः हर अंक कमजोर साबित होता है इस बार भी वही हुआ है। राजेन्द्र नामदेव, अशोक चंद्र तथा योगिता यादव की कविता में क्या देखकर संपादक ने इन्हें पत्रिका में स्थान दिया है समझ से परे है। ‘जिन्होंने मुझे बिगाड़ा’ स्तंभ जिस मुखरता व प्रखरता के साथ शुरू हुआ था अब लगता है लटकों झटकों का शिकार होता जा रहा है। पत्रिका का सबसे सुंदर व पठनीय पक्ष ‘बीच बहस में है’ इसकी रचनाएं व विचार विश्व स्तर के किसी भी साहित्य से टक्कर ले सकते हैं। जाहिद खान व नूर जहीर ने तो दिमाग की खिडकियां खोल देने वाले विचार व्यक्त किए हैं। सुरेश गर्ग की लघुकथा ने पत्रिका के रिक्त स्थान की मात्र पूर्ति ही की है। श्रीप्रकाश श्रीवास्तव की ग़ज़ल ठीक ठाक है। अरूंधती राय का आलेख:आंतरिक सुरक्षा या युद्ध’ प्रत्येक साहित्य मर्मज्ञ को पढ़ना चाहिए। लगता है शीबा असलम फातमी किसी विशेष प्रयोजन को लेकर इस्लाम को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रही हैं। इसलिए प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया फिर प्रतिक्रिया और एक प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अंतहीन सिलसिला आखिर कहां तक जाएगा? विचारणीय है। प्रायः सभी समीक्षाएं व मुकेश कुमार का मीडिया पर आलेख पठनीय है। ख्यात लेखक भारत भारद्वाज की परिक्रमा प्रतिवर्ष जनवरी में कुछेक फेरबदल, नए नाम, कुछ नए प्रसंग के साथ प्रकाशित होती है। जिसमें नयापन तो है लेकिन परिपूर्णता तब तक नहीं होगी जब तक इंटरनेट पर उपलब्ध साहित्यिक गतिविधियों का इसमें समावेश नही होगा। कुल मिलाकर हंस का यह अंक भी अच्छी पठनीय सामग्री लेकर आया है। संपादकीय तो हर अंक के समान विचार योग्य है ही।

3 تعليقات

  1. अरुंधति राय का आलेख वाकई में एक नया परिदृष्य सामने रखता है...
    इसकी अनुशंसा की ही जानी चाहिए...

    काश, यह ब्लॉगजगत में भी आ पाता किसी तरह...

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  2. फावड़े को फावड़ा कहने वाले लोग आज कम ही मिलते हैं | पत्रिका की ईमानदार समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा | यद्यपि हिंदी साहित्य से मेरा लगाव अक्षर्तः ही है फिर भी इस पत्रिका का एक संस्करण पढने का प्रयास अवश्य करूंगा |

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  3. नामवर सिंह "द्वितीय"12 فبراير 2010 في 12:09 ص

    समझ में नहीं आता, राजेंद्र यादव अपने दलित विमर्श से बाहर कब निकलेंगे?

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