पत्रिका-हंस, अंक-जून.09, स्वरूप-मासिक, संपादक-राजेन्द्र यादव, पृष्ठ-98, मूल्य-25रू.(वार्षिक 25रू.) संपर्क-अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 3/36, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002(भारत)
पत्रिका के समीक्षित अंक में प्रकाशित कहानियों में से इस बार नहीं(मुर्सरफ आलम जौक़ी), पी फार प्यार में पागल कभी-कभी(जयंती रंगनाथन) प्रमुख हैं। इन कहानियों की पृष्ठभूमि में आज का वह मानव दिखाई देता है जो जीवन यापन के लिए संर्घषरत है। क्योंकि उनका नाम नईम था(वीरेन्द्र जैन) आलेख ख्यात कवि तथा रचनाकार नईम के विषय में उपयोगी जानकारी उपलब्धक कराता है। आलोक श्रीवास्तव, राहुल झा, मलखान सिंह तथा संध्या गुप्ता की कविताओं में नयापन दिखाई देता है। इस बार शीबा असलम फहमी के आलेख में वह धार दिखाई नहीं दी जिसके लिए वे जानी पहचानी जाती हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने इसे जल्दी में लिखा हो? सी. भास्कर राव की फिल्मी डायरी उपयोगी तथा संग्रह योग्य जानकारी देती है। मुकेश कुमार का आलेख घृतराष्ट्र की सभा में सब अंधे हैं पाठक को आज के संदभों ेके साथ सोचने समझने की नई क्षमता प्रदान करता है। इस अंक की लघुकथाओं तथा ग़ज़लों में कुछ भी नयापन दिखाई नहीं दिया। न जाने क्यों हंस एक ही बात को बार बार प्रस्तुत कर पाठकों को क्या बताना चाहता है। भारत भारद्वाज के आलेख सहित पत्रिका की अन्य सभी रचनाएं कुछ कुछ टाइप्ड सी होती जा रही हैं। यदि हंस के संपादक मंड़ल द्वारा अपेक्षाकृत नए रचनाकारों की अच्छी तथा पठनीय रचनाओं को स्थान नहीं दिया गया तो पाठक इससे दूर हट सकते हैं।

1 टिप्पणियाँ

  1. सुंदर विश्लेषण...आप सच कह रहे हैं कि भारत जी का कालम कुछ ज्यादा ही एकरस होता जा रहा है।

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