
पत्रिका का समीक्षित अंक विविधतापूर्ण साहित्यिक सामग्री लिए हुए है। रंजना अरगड़े ने स्वाधीनता और साहित्य के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर संकेत किया है। निर्मल वर्मा के उपन्यासों में नारी चेतना पर डाॅ. नमस्या ने पुरजोर तरीके से समझाने का प्रयास किया है कि निर्मल वर्मा के साहित्य में नारी ‘कमजोर तो नहीं है पर वह अकेलेपन की नियति को ढोने के लिए मजबूर है’। एस. मुत्तुकुमार ‘विष्णु प्रभाकर के साहित्य में चित्रित अंधविश्वास’ को उनके समाधान के रूप में देखा है। गणेश गुप्त ‘सूर साहित्य में सांस्कृतिक चेतना’ के लिए मूल स्त्रोत वैष्णव धर्म को मानते हैं। प्रो. ललिताम्बा ‘भाषा कहीं पंगु हो गई तो’ आलेख में भाषा के संबंध में भावनात्मक ढंग से विचार करते हैं। पत्रिका के अन्य आलेख भी उपयोगी तथा संग्रह योग्य हैं। सत्यनारायण पण्डा, मनमोहन सिंह, केशव शरण तथा सुभाष सोनी कविताओं में विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। पत्रिका के शोधपरक अन्य आलेख कर्नाटक में हिंदी के प्रचार प्रसार की एक झलक दिखलाते हैं। यह सुखद है कि आज हिंदी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार की जा रही है।
सचमुच यह सुखद है कि आज हिंदी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार की जा रही है ।
ردحذفमाननीय शुक्ल जी ,सिर्फ पत्रिका का परिचय देने से बेहतर यह होता कि पत्रिका का एक -आध चैप्टर ही हमें पढ़वा देते
ردحذفbahut khusi ki baat hai...
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