पत्रिका: वागर्थ, अंक: अक्टूबर 2010, स्वरूप: मासिक, संपादक: विजय बहादुर सिंह, पृष्ठ: 120, मूल्य: 20रू.(वार्षिक 200 रू.), ई मेल: , वेबसाईट/ब्लाॅग: http://www.bhartiyabhasaparishad.com/ , फोन/मो. 033.329306, सम्पर्क: भारतीय भाषा परिषद, 36 ए, शेक्सपियर शरणि, कोलकाता
हिंदी साहित्य की अग्रणी पत्रिका के अक्टूबर अंक में विचार योग्य व अच्छी विश्लेषण सामग्री का प्रकाशन किया गया है। समीक्षित अंक में उदयप्रकाश जी अपने ब्लाॅग पर मेघा पाटकर की कविता ‘अंतर’ और ‘उत्तर पाठिकता’ को विशेष रूप से स्थान दिया है। कृष्ण कुमार रत्तू का लेख लौटेगा क्या कभी डोलना का चेहरा पठनीय व जानकारीप्रद है। गांधी और हिंद स्वराज पर वीरेन्द्र कुमार वरनवाल तथा हितेन्द्र पटैल के लेख स्वराज पर नए सिरे से विचार करते दिखाई पड़ते हैं। लोक विमर्श के अंतर्गत लेख पर्यावरण एवं विकास(सुभाष शर्मा) व बड़े लोग बड़ा भ्रष्टाचार(गिरीश मिश्र) विमर्श के माध्यम से आम पाठक को भारतीय समाज की बुराईयों व उसके दुष्परिणामों के प्रति आगाह भी करते हैं। मुद्राराक्षस का लेख ‘क्या सारे बड़े कवि एक ही बड़ी कविता लिख रहे है’ तथा कृपाशंकर सिंह ‘कविता का तिलिस्म’ आलेख में कवि एवं कविता पर आज के संदर्भ में विचार करते हैं। दिलीप शाक्य की लम्बी कविता तथा ज्ञानेन्द्रपति, सुनीता जोशी व मिथलेश कुमार की कविताएं ै बाज़ारवाद के दुष्परिणामों को पहचान चुकी हैं। यही कविता का एक प्रमुख उद्देश्य भी है कि वह तत्कालीन समाज को सचेत करता रहे। कहानियों में जिंदगी अफसाना नहीं(समाल बिन रजाक), तस्मैं श्री गुरूवै नमः(दामोदर दत्त दीक्षित), अर्जन्या(हरि मृदुल) एवं अर्जन्या(प्रमोद भार्गव) में भी आशावादी समाज के लिए संदेश दिया गया है। पत्रिका धर्मयुग पर पद्मा सचदेव को लेख व चित्रा मुदगल का आलेख कहानियां लिखतीं कहानियां प्रत्येक नव रचनाकार का मार्गदर्शन करती हैं। अकील अहमद अकील की उर्दू ग़ज़ल के साथ साथ जहीर कुरेशी, भारत यायावर, विनय मिश्र व महेश कटारे सुगम की ग़ज़लें प्रभावित करती हैं। कवि गोपाल सिंह नेपाली पर राजीव श्रीवास्तव के लेख में विवरण की अपेक्षा विस्तार अधिक आ गया है जिससे लेख बिखर सा गया है। अन्य अंकों की तरह पत्रिका का संपादकीय विचार व विश्लेषण युक्त है।

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