पत्रिका: पाखी, अंक: जुलाई2010, स्वरूप: मासिक, संपादक: अपूर्व जोशी, पृष्ठ: 96, मूल्य:20रू.(.वार्षिक 240रू.), ई मेल: pakhi@pakhi.in , वेबसाईट/ब्लाॅग: http://www.pakhi.in/ , फोन/मो. 0120.4070300, सम्पर्क: इंडिपेडेंट मीडिया इनिशिएटिव सोसायटी, बी-107, सेक्टर-61, नोएडा 201303
अग्रिम पंक्ति मंे स्थान बना चुकी साहित्यिक पत्रिका का समीक्षित अंक भी इसके पूर्ववर्ती अंकों के समाना रचनात्मकता से परिपूर्ण है। अंक में प्रकाशित कहानियां पाठकों को वर्तमान मंे रखते हुए भी अतीत से जोड़े रखती है। इनमें प्रमुख हैं- तरंगों के प्रेत(राकेश कुमार सिंह), कैरम की गोटियां(अचला बंसल), कहानी के बाद कहानी(मुकुल जोशी) एवं सोमेश भैया(दिनेश पाठक)। अंक में प्रकाशित कविताएं उत्तर आधुनिकता से आगे तो आगे बढ़ती है पर नई सदी के मानव की अदम्य इच्छा की अपेक्षा हकीकत को पुरजोर ढंग से व्यक्त करती है। रामजी यादव, रमेश प्रजापति, केशव त्रिपाठी, रमेश कुमार वर्णवाल व संजीत कुमार की कविताएं इस बात की साक्षी हैं। मृत्युंजय मिश्र, भानुमित्र तथा इंदु श्रीवास्तव की ग़ज़लें ग़ज़ल विधा के पैरामीटर पर सटीक बैठती हैं। लक्ष्मण सिंह विष्ट ‘बटरोही’ व दिनेश कर्नाटक के आलेख एक सार्थक बहस को लेकर अंजाम तक पहुचाने की कोशिश करते दिखाई देते हैं। अरूण कुमार प्रियम के आलेख में परिपक्वता की कुछ कमी दिखाई दी। राजीव रंजन गिरि, पुण्य प्रसून वाजपेयी, विनोद अनुपम, रवीन्द्र त्रिपाठी एवं पे्रम भारद्वाज अपने अपने आलेखों को गहन विश्लेषण तक ले जा सके हैं। प्रतिभा कुशवाहा ने ब्लाॅगनामा में एक बहुत ही संवेदनशील तथा गंभीर विषय को अपने आलेख का आधार बनाया है। अश्लीलता के मुद्दे पर गंभीर बहस की आवश्यकता है। पत्रिका की अन्य रचनाएं, समीक्षाएं व पत्र आदि भी इसे आम पाठक की उत्कृष्ठ पत्रिका का दर्जा प्रदान करते हैं। पत्रिका के संपादकीय में प्रकाशित अज्ञेय जी की कविता ‘क्योंकि मैं’ वह सब कुछ कह देती है जो विवाद से परे है।

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