पत्रिका: पाखी, अंक: फरवरी 10, स्वरूप: मासिक, संपादक: अर्पूव जोशी, पृष्ठ: 114, मूल्य: 20 रू.(वार्षिक 240रू.), ई मेल: pakhi@pakhi.in , वेबसाईट: http://www.pakhi.in/ , सम्पर्क: इंडिपेंडेंट मीडिया इनिशियटिव सोसायटी, बी-107, सेक्टर 63, नोएडा 201303 पाखी का समीक्षित अंक अपने अन्य अंक विचारणीय रचनाओं के साथ प्रकाशित हुआ है। इसे ‘विचार अंक’ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अंक में प्रकाशित कहानियों के केन्द्र में भी एक विचार हैै जिसपर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए। चोट(योगेन्द्र दत्त शर्मा), डाॅक्टर आॅफ दा क्रास(सेराज खान बातिश), एक और हीरा मोती(दया हीत) तथा बरफ में खड़ा सलीब(शीला इन्द्र) पढ़कर उस विचार की गहराई तक पहुंचा जा सकता है जिसके लिए इन कहानियों को लिखा गया है। ख्यात कथाकार सूर्यबाला की संस्मरणात्मक कहानी मटियाला तीतर करूणा से उपजी रचना है यह दया की अपेक्षा सहानुभूति केन्द्रित रचना हैं। सभी कविताएं अपनी समकालीनता के लिए याद रखने योग्य हैं। विशेष रूप से ज्योति चावला, सुरेश सेन व अरूण शीतांश की कविताओं में समाज विच्छेपित होकर अलग अलग रंगों की आभा विखेरता है। मुर्शरफ आलम जौक़ी, राजीव रंजन गिरि, हिमांशु शेखर के आलेख पाठक की सोच बदलने का प्रयास करते दिखते हैं। पुण्य प्रसून वाजपेयी, विनोद अनुपम, पे्रम भारद्वाज तथा प्रतिभा कुशवाहा अपने अपने स्तंभों में गहराई के साथ अपनी बात रखते हुए पाठक की सोच में परिवर्तन लाने के लिए तत्पर जान पड़ते हैं। प्रतिभा कुशवाहा तथा प्रेम भारद्वाज के स्तंभ विषय प्रधान होते हुए भी विषयी प्रधान है यह पत्रिका के भविष्य के लिए सुखद है। सभी समीक्षाएं तथा रचनाएं उल्लेखनीय व पठनीय है। लेकिन पत्रिका का प्रमुख आकर्षण ‘पीढ़ियां आमने सामने’ हैं। इसमे पत्रिका के संपादक अपूर्व जोशी तथा पे्रम भारद्वाज ने दो पीढ़ियों को सामने रखा है। चर्चा में पुरानी पीढी से प्रो. निर्मला जैन, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया जैसी ख्यात तथा लब्धप्रतिष्ठित लेखिकाओं के विचार जानने का सुअवसर पाठकों को मिला है। नई पीढ़ी से वंदना राग, तथा कविता जैसी प्रसिद्ध एवं स्थापित लेखिकाओं ने अपने अपने विचार रखे हैं। देश काल परिस्थिति के अनुसार महिलाओं की समस्याएं नए रूप में सामने आती रहीं हैं। हिंदी साहित्य में महिला लेखिकाएं स्त्री की उन समस्याओं को भी उठाती रही हैं जिन पर अधिक गंभीरतापूर्वक कभी सोचा ही नहीं गया था। भारतीय महिला लेखिकाओं में महाश्वेता देवी (पुरानी पीढ़ी से) तथा अरूंधती राय (नई पीढ़ी) का लेखन (भले ही वे उपन्यासकार के रूप में अधिक प्रसिद्ध हों) महिला केन्द्रित न होते हुए भी कहीं न कहीं महिला की समस्याओं से जुड़ हुआ है। अतः इस चर्चा में यदि अन्य भारतीय भाषाओं की लेखिकाओं को भी शामिल किया जाता तो परिचर्चा और भी रोचक जानकारीप्रद होती। इस परिचर्चा से स्पष्ट होता है कि हिंदी साहित्य में महिला लेखिका ‘स्त्री’ की समस्याओं को लेकर जागरूक हैं। व उसे हल करवाने के लिए वचनबद्ध भी है। इतनी अच्छी परिचर्चा के लिए अपूर्व जोशी व प्रेम भारद्वाज बधाई के पात्र हैं।

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