पत्रिका-हंस, अंक-सितम्बर.09, स्वरूप-मासिक, संपादक-राजेन्द्र यादव, पृष्ठ-96, मूल्य-25रू.(वार्षिक250रू.), संपर्क-अक्षर प्रकाशन प्रा. लि. 2/36, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली 110002(भारत), फोन-(011)23270377ए 41050047, email editorhans@gmail.com
पत्रिका हंस का समीक्षित अंक आज के ख्यात रचनाकारों के नज़रिये को जाहिर करता है। अंक मंे कहानीकारों, मीड़िया कत्र्ताओं, प्रकाशकों, संपादकों आदि के विचार पूछे गये प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से प्रकाशित किए गए हैं। शैलेन्द्र सागर, अर्चना वर्मा, ओमप्रकाश वाल्मीकि, रवीन्द्र वर्मा, अनामिका, संजीव जी के नज़रिये को प्रकाशित किया गया है। इन्होंने उपन्यास लेखन को आज की उपेक्षित विधा के रूप में दर्शाया हैं। जितने भी ख्यात कथाकार हुए हैं वे अच्छे स्थापित नाविल निग़ार भी रहे हैं। ब्लाॅग के पाठक मेरे विचारों से अवश्य ही सहमत होंगे। गोविंद सिंह एवं मधुसूदन आनंद जैसे संपादकों ने विशाल पाठक वर्ग, समकालीन साहित्य एवं राजनीति तथा समाज को लेकर उपयोगी विचार रखे हैं। अप्रवासी भारतीयों मंे उषा प्रियंवदा, तेजेन्द्र शर्मा, इला प्रसाद एवं सुनील दीपक के विचार विदेशों में हिंदी साहित्य की स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार प्रगट करते हैं। अप्रवासी भारतीयों से परंपरागत एवं भारतीय साहित्य की राजनीति से हटकर कुछ ऐसे प्रश्नों का समावेश किया जाना चाहिए था जो भारत में हो रहे हिंदी साहित्य के विकास से संबंधित होते। प्रकाशकों में अशोक माहेश्वरी, अरूण माहेश्वरी, सत्यव्रत एवं महेश भारद्वाज के विचार उल्लेखनीय हैं। लेकिन पता नहीं क्यों पत्रिका इस क्षेत्र में दिल्ली से बाहर निकल नहीं सकी है। आज देश भर में हिंदी साहित्य के प्रकाशकों की संख्या हजारों मंे है। कम से कम बीस प्रकाशकों (देश भर के विभिन्न स्थानों से) से उनके विचार प्रकाशित किया जाना चाहिए था। कहानीकारों में आशुतोष भारद्वाज, तरूण भटनागर, वंदना राग, पंकज मित्र, विपिन चैधरी, अंजली काजल, प्रभात रंजन, कविता एवं मनोज कुमार पाण्डेय के विचारों को ही देश भर के कहानीकारों के विचार मान लिया गया है। वस्तुतः उपरोक्त सभी कहानीकार ‘हंस’ के होम स्टोरी राइटर ही हैं। पत्रिका में प्रकाशित कहानियों में पुष्पक विमान(अल्पना मिश्र), जड़-जमीन(अरूण यादव) तथा पता(डाॅ. स्वप्निल सुधाकर अजबे) को छोड़कर अन्य अप्रभावी व पत्रिका के स्तर के आसपास की नहीं हैं। पत्रिका का पढ़ने योग्य आलेख अतिथि संपादक अजय नावरिया का बहुत ही संतुलित तथा विचारात्मक संपादकीय है जो आज के संदर्भ व अतीत के मध्य सेतु का कार्य करता है। शीबा असलम फहमी, अजित राय एवं भारत भारद्वाज के आलेख भी पठ्नीय व पत्रिका की गरिमा के अनुरूप हैं। मेरे विचार से संपादकीय का लेखन किसी साहित्यकार को उत्तर देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। संपादकीय तो पत्रिका प्रिज्म होता है जो पाठक की नज़र के प्रकाश को इंद्रधनुषी बना देता है। फिर भी एक अच्छे नजरिये, विचारोत्तेजक परिचर्चा के लिए बधाई।

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