पत्रिका-कथन, अंक-जुलाई-सितम्बर.09, स्वरूप-त्रैमासिक, संपादक-संज्ञा उपाध्याय, संस्थापक-रमेश उपाध्याय, पृष्ठ-100, मूल्य-रू.25 (वार्षिक रू.100), संपर्क-107 साक्षर अपार्टमेंट, ए-3 पश्चिम विहार नई दिल्ली
भारत कथन का समीक्षित अंक ख्यात साहित्यकार स्व. श्री विष्णु प्रभाकर पर आंशिक रूप से एकाग्र है। हालांकि पत्रिका ने इस बात की घोषणा तो नहीं की है कि अंक की रचनाएं उन्हें समर्पित हैं पर पत्रिका का मूल स्वर स्पष्ट करता है कि स्व. श्री विष्णु जी पर एकाग्र रचनाएं तथा संस्मरण पत्रिका से उस महान साहित्यकार के संबंध किस तरह के थे। कहानी ‘कितने जेबकरते’ पढ़कर समझा जा सकता है कि आज भी परिस्थितियों में कोई विशेष फर्क नहीं आया है। नंद भारद्वाज की कहानी ‘उलझन में अकेले’ भी एक प्रभावशाली रचना हैं लेकिन आर. के. पालीवाल की कहानी ‘अनगढ़ हीरे’ दिल्ली की ट्रेवल कम्पनियों के ड्रायवरों की जिंदगी तथा उनकी मनः स्थिति पर प्रकाश डालती है तथा उनके कल्याण के लिए मार्ग सुझाती है। अंक में नईम, महेन्द्र नेह तथा पवन करण की कविताएं दिल को झंकृत करती प्रतीत होती है। लेकिन सविता भार्गव की कविताओं पर लीलाधर मण्डलोई का आलेख कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण लगा। उन्हंे इस अतिवाद से बचना चाहिए। तेलुगु कहानी ‘सामूहिक मृत्युदंड़’ के हिंदी अनुवाद में अनुवादक आर. शांता संुदरी ने कथा का अनावश्यक हिंदीकरण कर दिया है जिससे उसकी मौलिकता तथा प्रवाह पर खराब प्रभाव पड़ा है। सरला संुदरम तथा मुकुल शर्मा के आलेख नए विषयों की साहित्यिक प्रस्तुति का सफल प्रयास है। विचार चर्चा के अंतर्गत सभी आलेख विशेष रूप से प्रभात पटनायक तथा वंशी वकुलाभरणम विषय की गहराई तक पहंुच सके हैं। हमेशा की तरह ज्वारीमल्ल पारख ने फिल्मों के बहाने आम आदमी से संवाद स्थापित किया है। उत्पल कुमार, चंद्रेश तथा संज्ञा उपाध्याय ने संक्षिप्त किंतु सटीक समीक्षा लिखी है। पत्रिका कुछ गिने चुने लेखकों की वजह से एकाकी मार्ग होती जा रही है जबकि इसे फोर लाईन राजमार्ग होना चाहिए। आशा है पत्रिका की नवोदित संपादक संज्ञा उपाध्याय इस तथ्य पर विशेष ध्यान देगीं।

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